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________________ पहला उद्देशक ४९ अकृत्स्ना आरोपणा का प्रक्षेप करना चाहिए। जिन, चतुर्दशपूर्वधर यावत् भिन्नदशपूर्वधर, एकजातीय, ४३१. कसिणाऽकसिणा एता, सिद्धा उ भवे पकप्पनामम्मि। आलोचना, दुर्बल आलोचक, आचार्य-इनको लक्षित कर अर्थात् चउरो अतिक्कमादी, सिद्धा तत्थेव अज्झयणे ।। इन कारणों से दोषों का एकत्व होता है। ये कृत्स्ना और अकृत्स्ना आरोपणा प्रकल्प-निशीथ नाम ४३८. घतकुडगो उ जिणस्सा,चोद्दसपुव्विस्स नालिया होति । के अध्ययन में प्रतिपादित हैं। उसी अध्ययन में अतिक्रम आदि दव्वे एगमणेगे, निसज्ज एगा अणेगा य ।। चारों अतिचार कहे गये हैं। 'जिन' के विषय में घृतकुटक का दृष्टांत तथा चतुर्दशपूर्वी के ४३२. अतिक्कमे वतिक्कमे, चेव अतियारे तधा अणायारे। विषय में नालिका का दृष्टांत है। एक जातीय में एक-अनेक द्रव्य गुरुओ य अतीयारो, गुरुयतरागो अणायारो।। विषय तथा आलोचना के विषय में एक-अनेक निषद्या का विचार अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चारों है। में अतिक्रम से व्यतिक्रम गुरुक है, व्यतिक्रम से अतिचार गुरुक ४३९. उप्पत्ती रोगाणं, तस्समणे ओसधे य विब्भंगी। है और अतिचार से अनाचार गुरुकतर है। नाउं तिविधामयिणं, देंति तथा ओसधगणं तु ।। ४३३. तत्थ भवे न तु सुत्ते, अतिक्कमादी तु वण्णिता केई। विभंगज्ञानी रोगों की उत्पत्ति तथा उनको शमन करने वाली चोदग सुत्ने सुत्ते, अतिक्कमादी उ जोएज्जा ।। औषधियों को जानकर तीन प्रकार के रोगियों (वात के रोगी, शिष्य के मन में यह आशंका होती है कि सूत्र में-निशीथ पित्त के रोगी और कफ के रोगी) को उस प्रकार की औषधियां अध्ययन में अतिक्रम आदि का वर्णन नहीं है। आचार्य कहते हैं- देते हैं, जिनसे रोगोपशमन हो जाता है। शिष्य ! प्रत्येक सूत्र में अतिक्रम आदि की योजना करनी चाहिए, ४४०. एक्केणेक्को छिज्जति, एगेण अणेग गहिं एक्को। क्योंकि यह प्रायश्चित्तगण अतिक्रम आदि से ही होता है। णेगेहिं पि अणेगे, पडिसेवा एव मासेहिं ।। ४३४. सव्वे वि य पच्छित्ता, जे सुत्ते ते पडुच्चऽणायारं | यहां घृतकुट की चतुर्भंगी बतलायी है थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे चतुसु वि पदेसु ।। • एक घृतकुट से वातादिक एक रोग नष्ट होता है। सूत्र में जो प्रायश्चित्त कथित हैं वे सभी स्थविरकल्पिक • एक घृतकुट से अनेक अर्थात् वातादिक तीनों रोग नष्ट मुनियों के अनाचार के आधार पर कहे गये हैं।' होते हैं। जिनकल्पमुनि को चारों पदों का प्रायश्चित्त आता है, परंतु • अनेक घृतकुटों से एक ही वातादिक रोग नष्ट होता है। प्रायः चारों पदों का आचरण करते नहीं।२ • अनेक घृतकुटों से अनेक रोग नष्ट होते हैं। ४३५. निसीध नवमा पुव्वा, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। इसी प्रकार प्रतिसेवना भी एक-अनेक मासों के प्रायश्चित्त आयारनामधेज्जा, वीसतिमे पाहुडच्छेदा ।। से शुद्ध होती है। प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व की आचार नामक तृतीय ४४१. एक्कोसहेण छिज्जति, केइ कुविता य तिण्णि वातादी। वस्तु (अर्थाधिकार) के बीसवें प्राभतछेद से निशीथ अध्ययन का ___ बहुएहिं छिज्जति, बहूहि एक्केक्कतो वावि ।। निर्वृहण किया गया है। एक ही औषधि से वात आदि तीनों रोग उपशांत हो जाते ४३६. पत्तेयं पत्तेयं, पदे पदे भासिऊण अवराधे। हैं। बहुत औषधियों से वातादिक अनेक रोग उपशांत होते हैं तथा तो केण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्ना ।।। एक औषधि से वातादिक एक ही रोग उपशांत होता है। इन तीन निशीथ के १९ उद्देशकों के प्रत्येक सूत्र में एक-एक दोष विकल्पों को ग्रहण कर लेने पर चौथा विकल्प-अनेक औषधियों का अपराध-प्रायश्चित्त बतलाया गया है। फिर किस कारण से से एक वातादिक रोग नष्ट होता है-भी गृहीत हो जाता है। दोषों का एकत्व होता है? (इसी प्रकार केवली मासार्ह प्रतिसेवना की शुद्धि के लिए ४३७. जिणचोद्दसजातीए, आलोयणदुब्बले य आयरिए। एक मास, अनेक मास की प्रतिसेवना के लिए भी एक मास एतेण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्ना ।। अथवा अनेक मासों की प्रतिसेवना के उपशमन के लिए एक मास १. सूत्र में प्रायश्चित्त का विषय अनाचार ही है। स्थविरकल्पी मुनि अतिक्रम, व्यतिक्रम और अनाचार होने पर 'मिच्छामी दुक्कड' से भी शुद्ध हो जाता है। यह सूत्राभिहित प्रायश्चित्त का विषय नहीं है। अनाचार भी अतिक्रम आदि का अविनाभावी है। (वृ. पत्र ८८) २. जिनकल्पिकानां पुनः चतुर्ध्वप्यतिक्रमादिषु पदेषु प्रायश्चित्तं भवति, किंत्विदं प्रायस्ते न कुर्वन्ति। (वृ. पत्र ८८) ३. अपराधे सति मासिकादिकं प्रायश्चित्तं दीयते इति उपचारतः प्रायश्चित्तान्येव अपराधपदेनोक्तानि। (वृ. पत्र ८९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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