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________________ ४८ सानुवाद व्यवहारभाष्य की संख्या के पूरक हैं।) ४२७. विसमा आरुवणाओ, विसमं गहणं तु होति नायव्वं । ४२३. ठवणारोवणमासे, नाऊणं तो भणाहि मासगं। सरिसे वि सेवितम्मी, जध झोसो तध खलु विसुद्धो ।। जेण समं तं कसिणं, जेणऽहियं तं च झोसग्गं ।। सदृश प्रतिसेवना में भी स्थापना और आरोपणा परस्पर प्रतिसेवित मास का परिमाण सुनकर इतने मास स्थापना विषम दिवस वाली होने के कारण दिवसों का ग्रहण भी विषम के और इतने मास आरोपणा के जानकर संचयमासान पृथक्- होता है, यह जानना चाहिए। यह विषम कृत्स्नारोपणा के विषय पृथक् रूप से आलोचना करने वाले को बताना चाहिए। में कहा गया है। जो आरोपणा विषम है अर्थात् अकृत्स्न है, उसमें आरोपणा भाग देने पर झोष के बिना शुद्ध होती है वह कृत्स्ना दिवस ग्रहण करते समय जैसे झोष शुद्ध होता है, वैसा निश्चित आरोपणा है। जिसमें दिनों को मिलाने पर छहमास परिमाण से करना चाहिए, अन्यथा नहीं। अधिक होता है वह उतनी मात्रा में झोषाग्र-झोष परिमाण ४२८. एवं खलु ठवणातो, आरुवणाओ, विसेसतो होति । जानना चाहिए। ताहि गुणा तावइया, नायव्व तहेव झोसा य ।। (जैसे विशिका स्थापना में तथा पाक्षिकी आरोपणा में इस प्रकार स्थापना से आरोपणा विशेष होती है। पांच-यह झोष (कम करना, त्यागना) परिमाण है।) आरोपणा की मास संख्या से अथवा दिवस संख्या से गुणित होने ४२४. जत्थ उ दुरूवहीणा, न होंति तत्थ उ भवंति साभावी। पर उतने ही संचयमास प्राप्त होते हैं। उतने ही प्रमाण का झोष एगादी जा चोद्दस, एक्कातो सेस दुगहीणा ।। होता है। (सभी स्थापनाओं और आरोपणाओं के दिनों से मासों का ४२९. कसिणा आरुवणाए, समगहणं होति तेसु मासेसु । उत्पादन करने के लिए उनमें पांच का भाग देना चाहिए। भाग देने आरुवणा अकसिणाय, विसमं झोसो जधा सुज्झे ।। पर जो अंक आये उसको नियमतः द्विरूपहीन करना चाहिए। कृत्स्ना आरोपणा में दिवस-ग्रहण सम होता है। आद्य जहां द्विरूपहीन न हो वहां एक दिन से चौदह दिन पर्यंत स्थापना- भागगत मासों में प्रत्येक में १५ दिन का ग्रहण तथा शेषभागगत आरोपणा स्वाभाविक रूप से एक मास से निवृत्त माननी चाहिए। मासों में सर्वत्र पांच दिन का ग्रहण किया जाता है। अकृत्स्ना शेष स्थापना-आरोपणा द्विकहीन जाननी चाहिए। क्योंकि पांच आरोपणा में नियमतः विषम दिवसों का ग्रहण होता है। झोष का भाग देने पर लब्धांक द्विरूपहीन स्वभाव से हो जाता है। जिस प्रकार से शुद्ध होता है उसी प्रकार से दिवस-ग्रहण किया ४२५. उवरिं तु पंचभइए जे सेसा तत्थ केइ दिवसा उ। जाता है। ते सव्वे एक्काओ, मासाओ होंति नायव्वा ।। ४२९/१. जइ इच्छसि नाऊणं, ठवणारोवण जहाहि मासेहिं । पाक्षिकी स्थापना और पाक्षिकी आरोपणा के ऊपर अर्थात् गहियं तद्दिवसेहिं, तम्मासेहिं हरे भागं ।। १६ दिनों की स्थापना, आरोपणा को पांच से भाग देने पर जो यदि तुम दिवस-ग्रहण जानना चाहते हो तो स्थापनाशेष बचता है उसमें न कुछ जोड़ा जाता है और न निकाला जाता आरोपणा के मासों से संचयमासों को निकाल दो। फिर किस है। यहां एक शेष रहा। वही एक मास है। मास से कितने दिन लिये है, यह जानने के लिए छह मास के ४२६. होति समे समगहणं तह वि य पडिसेवणा उ नाऊणं । १८० दिनों में से स्थापना-आरोपणा के दिन निकाल कर उन हीणं वा अहियं वा, सव्वत्थ समं च गेण्हेज्जा ।। मासों का भाग दो। जो आये वे दिन और जो शेष रहे वे दिनों के स्थापना और आरोपणा का दिवस परिमाण सम होने पर। भाग। मास के दिन भी समान गृहीत होते हैं। फिर भी प्रतिसेवना को ४३०. एवं तु समासेणं, भणियं सामण्णलक्खणं बीयं । जानकर (अर्थात् किस मास की प्रतिसेवना कैसी थी?) दिवसों एतेण लक्खणेणं, झोसेतव्वा व सव्वाओ ।। का ग्रहण कभी हीन और कभी अधिक होता है अथवा सर्वत्र इस प्रकार संक्षेप में बीज की भांति सामान्य लक्षण समान दिनों का भी ग्रहण किया जाता है।' बतलाया गया है। इस बीजकल्प लक्षण से सभी कृत्स्ना और १. देखें-वृत्ति पत्र ८५,८६। आरोपणानुरोधिनी स्थापना होने के कारण स्थापना से आरोपणा २. स्थापना के मास शुद्ध हैं। अधिकृत आरोपणा की जितनी संख्या है, विशेष बन जाती है। तथा संचय मासों की ज्ञप्ति केवल स्थापनामासों उसके उतने भाग कर, प्रथम भाग को १५ से गुणा करें और शेष अथवा दिनों की संख्या से नहीं होती। अतः स्थापना से आरोपणा भागों को पांच से गुणा करें, इस प्रकार आरोपणा से दिवस परिमाण विशेष होती है। आरोपणा से भाजित करने पर जितना भाग शुद्ध लब्ध होता है। तब इतने ही स्थापना के प्रक्षेप से छह मास पूरे होते नहीं होता, उतने प्रमाण का झोष होता है। हैं। उसके अनुसार स्थापना दिनों की स्थापना की जाती है। अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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