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________________ दसवां उद्देशक ३७९ (अतिशय) नहीं है और क्षेम है, सुभिक्ष हो तो नियाघातरूप में संलेखना कर रहा है उसको वहां स्थापित कर बीच में प्रतिपत्ति-उसे भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार कराना चाहिए। चिलिमिली करनी चाहिए तथा जो लोग वंदना करने के लिए ४२७७. सयं चेव चिरं वासो, वासावासे तवस्सिणं। आएं, उन्हें बाहर से ही वंदना करने के लिए कहें। इस प्रकार तेण तस्स विसेसेण, वासासु पडिवज्जणा॥ बहिःस्थित जनता से वंदना करवाए। वर्षावास में तपस्वी मुनियों का स्वयं चिरकाल तक ४२८२. अणपुच्छाए गच्छस्स, पडिच्छती व जती गुरू गुरुगा। एकत्रवास होता है। इसलिए प्रत्याख्याता मुनि को विशेष रूप से चत्तारि वि विण्णेया, गच्छमणिच्छंत जं पावे।। भक्तप्रत्याख्यान कराना चाहिए। यदि गच्छ को बिना पूछे ही गुरु भक्तप्रत्याख्यान करने के ४२७८. कंचणपुर गुरुसण्णा, देवयरुवणा य पुच्छ कधणा य। इच्छुक मुनि को स्वीकार कर लेता है तो उसे चार गुरुमास का पारणगखीररुधिरं, आमंतण संघनासणया?॥ प्रायश्चित्त आता है। गच्छ की अनिच्छा के कारण उस मुनि को कलिंग जनपद में कांचनपुर नाम का नगर था। वहां बहुश्रुत जो असमाधि आदि होती है, उसका प्रायश्चित्त भी गुरु को आता आचार्य विहरण करते थे। आचार्य विचारभूमी में गए। उन्होंने है। देखा और जाना कि एक देवता स्त्री वृक्ष के नीचे रो रही है। दूसरे, ४२८३. पाणगादीणि जोग्गाणि, जाणि तस्स समाहिते। तीसरे दिन भी यही देखा। आचार्य ने पूछा-तुम क्यों रो रही हो? अलंभे तस्स जा हाणी, परिक्केसो य जायणे।। उसने कहा-मैं इस नगर की अधिष्ठात्री देवी हूं। यह नगर शीघ्र ही ४२८४. असंथरं अजोग्गा वा, जोगवाही व ते भवे। जल से आप्लावित होकर विनष्ट हो जाएगा। यहां अनेक एसणाए परिक्केसो, जा य तस्स विराधणा।। स्वाध्यायशील मुनि रहते हैं। उनके अनिष्ट को सोचकर रुदन कर उस भक्त प्रत्याख्याता मुनि की समाधि के लिए योग्य रही हूं। आचार्य ने पूछा-इस कथन का प्रमाण क्या है ? उसने पानक आदि का लाभ न होने पर यदि उसकी समाधि की हानि कहा-कल अमुक तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त । होती है, योग्य पानक आदि की याचना में मुनियों को परिक्लेश बन जाएगा। जिस क्षेत्र में जाने से वह दूध पुनः स्वाभाविक रूप होता है, संस्तरण के अभाव में अथवा अयोग्य निर्यापकों के में आएगा, वहां सुभिक्ष होगा।। कारण अथवा योगवाही मुनियों के लिए समाधि-कारक द्रव्यों की दूसरे दिन तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त । गवेषणा में परिक्लेश होता है-ये सारे उस भक्तप्रत्याख्याता मुनि में बदल गया। आचार्य ने प्रधान मुनियों को आमंत्रित कर विचार की विराधना के निमित्त बनते हैं। अतः गच्छ से पृच्छा करनी विमर्श किया और समस्त संघ के मुनियों ने अनशन स्वीकार कर चाहिए। लिया। ४२८५. अपरिच्छणम्मि गुरुगा, ४२७९. असिवादीहि वहंता, तं उवगरणं च संजता चत्ता। दोण्ह वि अण्णोण्णगं जधाकमसो। उवधिं विणा य छड्डण, चत्तो सो पवयणं चेव।। होति विराधण दुविधा, अशिव आदि के कारणों से मुनि उस भक्तप्रत्याख्याता तथा एक्को एक्को व जंपावे॥ उसकी उपधि को वहन कर ले जाते हैं, परंतु कारणवश दोनों को भक्तप्रत्याख्यान करने वाले मुनि को तथा गच्छ के साधुओं छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार भक्तप्रत्याख्याता परित्यक्त हो को एक दूसरे की यथाक्रम परीक्षा करनी चाहिए। परीक्षा न करने जाता है। इससे प्रवचन की हीलना होती है अतः प्रवचन भी त्यक्त पर दो प्रकार की विराधनाएं-आत्मविराधना और संयमविराधना हो जाता है। होती है। अकेला गच्छ जो अनर्थ प्राप्त करता है अथवा एकाकी ४२८०. एगो संथारगतो, बितिओ संलेह ततिय पडिसेधो। वह भक्तप्रत्याख्याता जो अनर्थ प्राप्त करता है-उसके निमित्त भी अपहुव्वंतऽसमाही, तस्स व तेसिं च असतीए॥ जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह भी उनका होता है। एक मुनि संस्तारगत-भक्तप्रत्याख्याता है, दूसरा मुनि ४२८६. तम्हा परिच्छणं तू, दव्वे भावे य होति दोण्हं पि। संलेखना कर रहा है, तीसरे का प्रतिषेध करना चाहिए, क्योंकि संलेह पुच्छ दायण, दिटुंतोऽमच्च कोंकणए।। तीनों के लिए निर्यापक नहीं मिलते। तब उस तीसरे को अथवा इसलिए गच्छ और भक्तप्रत्याख्यान करने वाला- दोनों प्रथम दोनों को अथवा निर्यापकों को असमाधि हो सकती है। द्रव्य और भाव से परीक्षा करे। यदि कोई मुनि आचार्य को ४२८१. भवेज्ज जदि वाघातो, बितियं तत्थ ठावते। कहे-मैं भक्तप्रत्याख्याता के साथ रहूंगा। तब आचार्य को उसकी चिलिमिणि अंतरे चेव, बहिं वंदावए जणं॥ संलेखना के विषय में पूछना चाहिए। पूछने पर कुपित होकर यदि भक्तप्रत्याख्याता के कोई व्याघात हो तो दूसरा अंगुलीभंग कर दिखाने पर यहां अमात्य कोंकण का दृष्टांत Jain Education International For Private & Personal Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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