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________________ ३७८ सानुवाद व्यवहारभाष्य अपरिश्रांत होता हुआ गीतार्थ की सन्निधि प्राप्त करने की चेष्टा अपरिश्रांत होता हुआ संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने के लिए करे। उसकी मार्गणा करे। ४२६३. गीतत्थदुल्लभं खलु कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा। ४२७१. संविग्गदुल्लभं खलु, कालं तु पडुच्च मग्गणा एसा। ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं॥ ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं ।। गीतार्थ की दुर्लभता के काल की अपेक्षा से यह (क्षेत्रतः संविग्न की दुर्लभता के काल की अपेक्षा से यह मार्गणा कालतः) मार्गणा कही गई है। गीतार्थ की गवेषणा के ये क्षेत्र- कही गई है। संविग्न की गवेषणा के ये क्षेत्रविषयक तथा विषयक तथा कालविषयक उत्कृष्ट परिमाण हैं। कालविषयक उत्कृष्ट परिमाण हैं। ४२६४. तम्हा गीतत्थेणं, पवयणगहियत्थसव्वसारेणं। ४२७२. तम्हा संविग्गेणं, पवयणगहितत्थसव्वसारेणं। निज्जवगेण समाधी, कायव्वा उत्तिमट्ठम्मि।। निज्जवगेण समाही, कायव्वा उत्तमट्ठम्मि ।। इसलिए प्रवचन का सर्वसारग्राही गीतार्थ मुनि निर्यापक इसलिए प्रवचन का सर्वसारग्राही संविग्न मुनि निर्यापक अवस्था में उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्याता को समाधि दे। अवस्था में उत्तमार्थ-भक्तप्रत्याख्याता को समाधि उत्पन्न करे। ४२६५. असंविग्गसमीवे वि, पडिवज्जंतस्स होति गुरुगा उ। ४२७३. एक्कम्मि उ निज्जवगे, विराहणा होति कज्जहाणी य। किं कारणं तु जहियं, जम्हा दोसा हवंति इमे।। सो सेहा वि य चत्ता, पावयणं चेव उड्डाहो।। असंविग्न के समीप भक्तपरिक्षा ग्रहण करने वाले के चार एक ही निर्यापक होने से विराधना तथा कार्यहानि होती है। गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसका कारण क्या है ? आचार्य (वह निर्यापक मृत्युवेला में कार्यवश कहीं गया हो तो) वह कहते हैं-उसमें ये दोष होते हैं अनशनी त्यक्त हो जाता है तथा शैक्ष भी त्यक्त हो जाते हैं और ४२६६. नासेति असंविग्गो, चउरंगं सव्वलोयसारंग। प्रवचन का उड्डाह होता है। नट्ठम्मि उ चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंगं॥ ४२७४. तस्सट्ठगतोभासण, सेहादि अदाण सो परिच्चत्तो। असंविग्न मुनि सर्वलोक का सारभूत अंग-चतुरंग का नाश दातुं व अदाउं वा, भवंति सेहा वि निद्धम्मा।। कर देता है। चतुरंग के नष्ट हो जाने पर पुनः उसकी प्राप्ति सुलभ निर्यापक भक्तप्रत्याख्याता के लिए पानक आदि लाने नहीं होती। गया। अनशनी के पास एक अव्यक्त शैक्ष बैठा है। अनशनी ने ४२६७. आहाकम्मिय पाणग, पुप्फा सेया य बहुजणे णातं। उससे भक्त की याचना की। न देने पर असमाधि से मृत्यु को प्राप्त सेज्जा-संथारो वि य, उवधी वि य होति अविसुद्धो॥ हो जाता है। इस प्रकार वह परित्यक्त हो गया। शैक्ष उसको असंविग्न निर्यापक बहुत लोगों को ज्ञात कर देता है और भक्तपान दे अथवा न दे, फिर भी वे निर्धर्मा हो जाते हैं-उनके मन प्रत्याख्याता के लिए आधाकर्मिक पानक, पुष्प, आदि ले आता है में प्रत्याख्यान के प्रति विचिकित्सा पैदा हो जाती है। तथा शरीर पर चंदन आदि का सेचन करता है। तथा उसके द्वारा ४२७५. कूयति अदिज्जमाणे, मारेंति बल त्ति पवयणं चत्तं। लाए गए शय्या, संस्तारक, उपधि आदि भी अविशुद्ध होते हैं। सेहा य जे पडिगया, जणे अवण्णं पगासेंति॥ ४२६८. एते अन्ने य तहिं, बहवे दोसा य पच्चवाया य। भक्त न देने पर वह अनशनी चिल्लाते हुए कहता है-'ये एतेण कारणेणं, असंविग्गे न कप्पति परिण्णा॥ मुझे बलपूर्वक मार रहे हैं।' इस प्रकार प्रवचन त्यक्त हो जाता है असंविग्न के पास भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने पर ये तथा , उसकी अवहेलना होती है। शैक्षों के प्रतिगत-प्रतिभग्न हो जाने अन्य दोष और प्रत्यवाय उत्पन्न होते हैं। इन कारणों से असंविग्न । पर वे जनता में अवज्ञा फैलाते हैं। के पास भक्तपरिज्ञा ग्रहण करना नहीं कल्पता। ४२७६. परतो सयं व णच्चा, पारगमिच्छंतिऽपारगे गुरुगा। ४२६९. पंच व छस्सत्तसया, अहवा एत्तो वि सातिरेगतरे। ___ असती खेमसुभिक्खे, निव्वाघातेण पडिवत्ती।। संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा. अपरितंतो॥ कोई मुनि भक्तप्रत्याख्यान करने आता है तो आचार्य को अतः पांच सौ, छह सौ, सात सौ तथा इनसे भी अधिक चाहिए कि वे स्वयं के आभोग-अतिशय ज्ञान से अथवा दूसरे योजनों तक अपरिश्रांत होकर संविग्न की सन्निधि प्राप्त करने के नैमित्तिक आदि से यह अतिशय जानकारी करें कि क्या यह लिए उसकी मार्गणा करनी चाहिए। प्रत्याख्यान का पारगामी होगा अथवा नहीं? यदि वे जान जाएं ४२७०. एक्कं व दो व तिण्णि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि।। कि यह पारगामी होगा तो उसकी इच्छा करें-उसे प्रत्याख्यान संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो॥ कराएं। यदि वे अपारगामी को प्रत्याख्यान कराते हैं तो उन्हें चार मुनि एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टतः बारह वर्षों तक गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि स्व और पर में आभोग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org कार Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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