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________________ २०८ सानुवाद व्यवहारभाष्य २२०१. सेसो तू भण्णंती, अप्पबितीया उ जे जहिं केई। किया गया है। गीतत्थमगीतत्थे, मीसे य विधी उ सो चेव॥ २२०७. अण्णोण्णनिस्सिताणं, अम्गीताणं पि उवगहो तेसिं। अनेक भिक्षुओं में कई आत्मद्वितीय हैं। उनमें जो शेष गीतपरिग्गहिताणं, इच्छाए तेसिमो होति। गीतार्थ, अगीतार्थ अथवा मिश्र हैं, उनके लिए वही आलोचना अन्योन्यनिश्रित उन अगीतार्थों का गीतार्थपरिगृहीत विषयक पूर्वोक्त विधि है। अवग्रह-आभवनव्यवहार होता है। वह दो प्रकार का है-इच्छा से २२०२. संजोगा उ च सद्देण, अधिगता जध य एग दो चेव। तथा सूत्रोक्त। एगो जदि न वि दोण्णी, अवगच्छे चउलहूओ से॥ २२०८.इच्छिति-पडिच्छितेणं,खेत्ते वसधीय दोण्ह वी लाभो। 'च' शब्द से संयोग अधिगत अर्थात् सूचित है। जैसे-एक अच्छं न होति उग्गह, निक्कारण कारणे दोण्हं ।। ओर एक भिक्षु है, दूसरी ओर दो भिक्षु हैं। वहां चाहिए कि वह इच्छित-प्रतीच्दिक आभवनव्यवहार इच्छा से होने वाला एक भिक्षु आत्मद्वितीय के पास उपसंपदा ले ले। यदि वह एक आभवनव्यवहार है। यह मार्ग में विहरण करते हुए मुनियों के भिक्षु दो के पास उपसंपदा नहीं लेता है तो चार लघुक का होता है। एकसाथ क्षेत्र में जाने तथा वसति को प्राप्त करने पर प्रायश्चित्त आता है। लाभ दोनों का होता है। यदि निष्कारण वहां स्थित हो, अवग्रह २२०३. पच्छा इतरे एगं, जदि न वि उवगच्छ मासियं लहुयं । उनका होता है, पश्चाद् प्राप्त का नहीं। कारण में स्थित होने पर जत्थ वि एगो तिण्णी, न उवगमे तत्थ वा लहुगा॥ अवग्रह दोनों का होता है। एक के उपसंपन्न होने पर पश्चात् दूसरे दो भी उपसंपन्न हो २२०९. समयपत्ताण साधारणं तु दोण्हं पि होति तं खेत्तं। जाते हैं। उपसंपन्न न होने पर उन दोनों को लघुमासिक विसमं पत्ताणं पुण, इमा उ तहि मग्गणा होति।। प्रायश्चित्त आता है। जिस विकल्प में एक ओर एक भिक्ष और एक साथ दोनों यदि क्षेत्र को प्राप्त करते हैं तो वह क्षेत्र दोनों दूसरी ओर तीन भिक्षु हों यदि वे परस्पर उपसंपन्न नहीं होते हैं तो का होता है। विषमकाल में प्राप्त करने पर उस क्षेत्र की यह लघुक प्रायश्चित्त आता है। मार्गणा है२२०४. एमेव अप्पबितिओ, अप्पतईयं तु जइ न उवगच्छे। २२१०. पडियरते व गिलाणं, सयं गिलाणाउरे व मंदगती। इयरेसि मासलहुयं, एवमगीते य गीते य॥ अपत्तस्स वि एतेहिं, उग्गहो दप्पतो नत्थि।। इसी प्रकार आत्मद्वितीय और आत्मतृतीय भी यदि ग्लान की प्रतिचर्या करने, स्वयं ग्लान हो जाने, आतुर हो उपसंपन्न नहीं होते हैं तो वे चतुर्लघु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। जाने अथवा मंदगति होने-इन कारणे से क्षेत्र को समकाल प्राप्त न दूसरे जो उपसंपदा नहीं लेते उन्हें मासलघुक प्रायश्चित्त आता होने पर भी उसका अवग्रह होता है। दर्प से निष्कारण स्थित है। इसी प्रकार अगीतार्थ और गीतार्थ के विषय में जानना मुनियों का अवग्रह नहीं होता। चाहिए। २२११. एमेव गणावच्छे, पलिछण्णाणं व सेसगाणं तु। २२०५. मीसाण एग गीतो, होति अगीता उ दोन्नि तिण्णी वा। पलिछन्ने ववहारो, दुविधो वागंतिओ नाम ।। एगं उवसंपज्जे, ते उ अगीता इहर मासो।। गणावच्छेदक, एक तथा बहुत परिच्छन्न और शेष के लिए मिश्रक में एक गीतार्थ है और दूसरे दो या तीन अगीतार्थ भी भिक्षु की भांति ही विधि वक्तव्य है। परिच्छन्न अर्थात् परस्पर हैं। जो अगीतार्थ हैं वे एक के पास उपसंपन्न हो जाएं। अन्यथा उपसंपन्न मुनियों का आभवनव्यवहार दो प्रकार का होता लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। है-सूत्रोक्त तथा वागन्तिक-अर्थात् वाणी से होने वाला २२०६.सो वि य जदि न वि इतरे, परिच्छेद-पार्थक्य। तस्स वि मासो उ एव सव्वत्थ। २२१२. पहगाम चित्तऽचित्तं, थीपुरिसं बाल-वुड्ड-सत्थादी। उवसंपया य तेसिं, इच्छाए वा देती, जो जं लभइ भवे बितिओ।। भणिता अण्णोण्णनिस्साए॥ वागन्तिक आभवनव्यवहार का स्वरूप-जो मार्ग में प्राप्त वह एक भी यदि उपसंपद्यमान दूसरों को उपसंपन्न नहीं हो वह हमारा और जो गांव में मिले वह तुम्हारा। जो सचित्त मिले करता उसके भी एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। सर्वत्र यह वह तुम्हारा और अचित्त मिले वह हमारा, दीक्षार्थी स्त्री तुम्हारी जानना चाहिए कि अन्योन्य निश्रा से उनकी उपसंपदा का कथन और दीक्षार्थी पुरुष हमारा, बालदीक्षार्थी तुम्हारा और १. इच्छित-प्रतीच्छित आभवनव्यवहार का अर्थ है-वाणी से स्थापित होगा वह तुम्हारा। जो सचित्त का लाभ होगा वह हमारा और अचित्त व्यवहार, जैसे-मार्ग में जो लाभ होगा वह हमारा और नगर में जो का तुम्हारा। अथवा जिसको जो प्राप्त होगा वह उसका आदि आदि। गा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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