SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२८) २६०७-२६०९. गोचरचर्या संबंधी आचार्य और शिष्य का ऊहापोह। व्युत्पत्ति। २६१०-२६१४. कौटुम्बिक से आचार्य की तुलना। २७०४. आचार्य का वसति के बाहर रहने का कारण। २६१५-२६१७. निरपेक्ष और सापेक्ष दंडिक दृष्टान्त। २७०५. गणावच्छेदक तथा गणी के दो अतिशयों का कथन। .२६१८-२६२५. आचार्य के भिक्षार्थ जाने के कारणों का निर्देश तथा २७०६,२७०७. भिक्षु के दश अतिशय। भिक्षर्थ न जाने पर प्रायश्चित्त। २७०८. सूत्राध्ययन किए बिना एकलवास करने का निषेध २६२६-२६२८. भिक्षा की सुलभता न होने पर आचार्य किन-किन और उसका प्रायश्चित्त। को भिक्षार्थ भेजे? २७०९,२७१०. अपठित श्रुत वाले अनेक मुनियों का एक गीतार्थ २६२९,२६३०. गणिपिटक पढ़ने वालों की वैयावृत्त्य से महान् के साथ रहने का विधान। निर्जरा। २७११-१८. अपठितश्रुत मुनियों का गच्छ से अपक्रमण एवं २६३१. विभिन्न आगमधरों की वैयावृत्त्य से निर्जरा की उससे होने वाले दोष। तरतमता। २७१९,२७२०. अपठितश्रुत मुनियों के एकान्तवास का विधान। २६३२. प्रावचनी आचार्य की वैयावृत्त्य से महान् निर्जरा। एक या अनेक का एकलवास और सामाचारी का २६३३-२६३६. भावों के आधार पर निर्जरा की तरतमता। विवेक। २६३७-२६३८. निश्चयनय से निर्जरा का विवेचन। २७२५-२७२८. गीतार्थनिश्रित की यतना और मुनियों के संवास २६३९. सूत्रधर, अर्थधर एवं उभयधर की वैयावृत्त्य से की व्यवस्था। निर्जरा। २७२९-२७३३. पृथक् पृथक् वसति में रहने का विधान और उसकी २६४०-२६४६. सूत्र और अर्थ से सूत्रार्थ श्रेष्ठ तथा शातवाहन का यतना-विधि। दृष्टान्त। २७३४-२७३८. अपठितश्रुत मुनियों के साथ आचार्य का व्यवहार २६४७,२६४८. अर्थमंडली में स्थित आचार्य का अभ्युत्थान विषयक और तीन स्पर्धकों का सहयोग। गौतम का दृष्टान्त। २७३९-२७४४. एक दिन में अपठितश्रुत स्पर्धकों का शोधन और २६४९-२६६०. अभ्युत्थान से व्याक्षेप आदि दोष। प्रायश्चित्त। २६६१-२६६४. अभ्युत्थान के तीन कारण। २७४५,२७४६. बहुश्रुत को भी अकेले रहने का निषेध। २६६५. अभ्युतथान का क्रम। २७४७. अभिनिर्वगड़ा के प्रकार एवं एकाकी रहने का २६६६-६९. सापेक्ष-निरपेक्ष शिष्य के संबंध में शकट का प्रायश्चित्त। दृष्टान्त। २७४८-२७५७. लज्जा, भय आदि के कारण पापाचरण से रक्षा। २६७०,२६७१. द्रव्य और भाव भक्ति में लोहार्य और गौतम का २७५८-२७६४. शुभ-अशुभ मनःपरिणामों की स्थिति का विभिन्न दृष्टान्त। उपमाओं से निरूपण। २६७२. गुरु की अनुकम्पा और गच्छ की अनुकम्पा से | २७६५,२७६६. एक लेश्यास्थान में असंख्य परिणाम-स्थानों का तीर्थ की अव्यवच्छित्ति।। कथन। २६७३. गुरु की गच्छ के प्रति अनुकम्पा से ही दशविध २७६७. लेश्यागत विशद्ध भावों से मोह का अपचय। वैयावृत्त्य का समाचरण। २७६८. शुभ परिणाम से मोह कर्म का क्षय होता है या २६७४-२६८२. आचार्य के पांच अन्य अतिशयों का विवरण। नहीं? २६८३. हाथ, मुंह आदि धोने के लाभ। २७६९-२७७८. एकाकी विहरण के दोष। २६८४. आचार्य के योगसंधान के प्रति शिष्यों की २७७९-२७८१. बहुश्रुत के एकाकीवास का समर्थन। जागरूकता। २७८२. बहुश्रुत के त्वग्दोष होने के कारण एकाकी रहने २६८५-२६९२. अतिशयों को भोगने में विवेक, आर्य समुद्र तथा का विधान। आर्य मंगु का निदर्शन। २७८३-२७८५. त्वग्दोष के प्रकार तथा उसकी सावधानी के उपाय। २६९३-२७०२. पूर्व वर्णित पांच अतिशयों में अंतिम दो अतिशयों | २७८६-८८. त्वग्दोषी की आचार्य द्वारा सारणा-वारणा अन्यथा का वर्णन। प्रायश्चित्त। २७०३. भद्रबाहु का 'महापान' ध्यान और महापान की |२७८९-२७९२. त्वग्दोष संक्रमण के हेतु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy