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________________ (२७) २३९२,२३९३. श्रमण द्वारा ग्लान श्रमणी की तथा श्रमणी द्वारा | २४८६-२४८८. उपसर्ग-सहिष्णु की परीक्षा। ग्लान श्रमण की वैयावृत्त्य करने की विधि। २५८९. स्वजनों से प्रतिबद्ध या अप्रतिबद्ध की पहचान। २३९४,२३९५. आगाढ प्रयोजन में द्विपक्ष वैयावृत्त्य अनुज्ञात। २४९०-२४९३. ज्ञातविधि में जाने वाले की योग्यता और २३९६. वैयावृत्त्य का सामान्य नियम। सहयोगियों की चर्चा। २३९७. सूत्र से अर्थ का सम्बन्ध कैसे ? २४९४. स्वज्ञातिक मुनि द्वारा धर्मकथा करने का निर्देश २३९८-२४००. विपक्ष के वैयावृत्त्य से दोष। और विधि। २४०१-२४०७. औषध आदि का ग्रहण तथा वैद्य का दृष्टान्त। २४९५. थावच्चापुत्र का दृष्टान्त कहने का निर्देश। २४०८. राजा के दो प्रकार-आत्माभिषिक्त और २४९६,२४९९ पूर्वायुक्त और पश्चादायुक्त भोजन की व्याख्या। पराभिषिक्त। २५००. भिक्षु को द्रव्यों के प्रमाण आदि का ज्ञान। २४०९. पराक्रमी राजा के चार बिंदू। २५०१. सात प्रकार का ओदन। २४१०. सूत्रार्थविहीन एवं औषधविहीन आचार्य की व्यर्थता। २५०२. शाक, व्यञ्जन आदि का परिमाण। २४११-२४१५. औषधि आदि नियय सम्बन्धी शिष्य का प्रश्न और २५०३. द्रव्य ग्रहण का परिमाण।। आचार्य का उत्तर। २५०४. भिक्षा-वेला का ज्ञान तथा संविग्न संघाटक। २४१६-२४२२. औषध के संचय का निषेध। २५०५-२५०९. ग्लान मुनि की चिकित्सा में पुरःकर्म तथा पश्चात् २४२३. समाधि के लिए शिष्य का प्रश्न और आचार्य का कर्म का विवेक। उत्तर। २५१०-२५१३. ग्लान के प्रयोजन से ज्ञातविधि प्राप्त करने वाले २४२४-२४२७. विद्या और मंत्र का संनिचय विहित। मुनियों की यतना। २४२८-२४३२. गणधारी के चिकित्साज्ञान की अनिवार्यता। २५१४-२५१८. ज्ञातविधि प्रास करने के हेतु। २४३३,२४३४. लवसप्तमदेव का स्वरूप। २५१९,२५२०. बहुश्रुत के अनेक अतिशय। २४३५. स्वपक्ष से चिकित्सा, विपक्ष से नहीं। २५२१. आचार्य के पांच अतिशेषों का वर्णन। २४३६. वैयावृत्त्य विषयक सूत्र और अर्थ में विपर्यास की आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि। अविधि से चर्चा। करने पर दोष तथा प्रायश्चित्त । २४३७,२४३८. वैद्य के अभाव में वैयावृत्त्य किससे? २५३०,२५३१. आचार्य के बहिर्गमन का हेतु तथा शैक्ष का प्रश्न। २४३९-२४४३. दूती विद्या, आदर्श विद्या आदि द्वारा रोगनिवारण २५३२-२५३७. आचार्य के वसति के बाहर ठहरने के दोष। का निर्देश। २५३८-२५४१. क्या भिक्षु वसति के बाहर रह सकता है ? प्रश्न २४४४. निर्ग्रन्थ के निर्ग्रन्थी द्वारा तथा निर्ग्रन्थी के निर्ग्रन्थ का समाधान। द्वारा वैयावृत्त्य करने पर प्रायश्चित्त का विधान। दूसरा अतिशय-संज्ञाभूमी में गमन, निषेध और २४४५,२४४६. जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के वैयावृत्त्य अपवाद। का विधान। २५५३-५७. लौकिक विनय बलवान या लोकोत्तर विनय ? २४४९. सर्पदंश के लिए ज्ञातविधि का ज्ञान। २५५८,२५५९. आचार्य के संज्ञाभूमी-गमन के अवसर पर मुनियों २४४८-२४५५. ज्ञातविधि का संज्ञान, प्रायश्चित्त तथा विविध दोषों का कर्त्तव्य। की समापत्ति। २५६०-२५६५. आचार्य की रक्षा का दृष्टान्त द्वारा समर्थन। २४५६-२४५९. सेनापति का दृष्टान्त। २५६६. आचार्य की रक्षा के लाभ। २४६०,२४६१. लोभ की समुदीरणा में रत्नस्थाल का दृष्टान्त। | २५६७,२५६८. तीसरा अतिशय-अतिशायी प्रभुत्व। २४६२-७३. ज्ञातविधिगमन के दोष तथा संयम से चालित करने | २५६९-२५७१. आचार्य को भिक्षा के लिए न जाने के हेतु। के ११ उपाय। २५७२-२५९९. आचार्य को गोचरी से निवारित न करने पर २४७४-२४७९. उत्प्रव्रजित मुनि द्वारा होने वाले दोषों का वर्णन। प्रायश्चित्त तथा उससे हाने वाले दोष। २४८०-८२. ज्ञातविधिगमन के उत्सर्ग, अपवाद तथा यतना। २६००-२६०२. आचार्य द्वारा भिक्षार्थी न जाने के गुण। २४८३. स्वाध्याय तथा भिक्षाभाव द्वारा शिष्य की परीक्षा। | २६०३-२६०६. कारणवश आचार्य का भिक्षार्थ जाने पर शिष्य का २४८४,२४८५. मंदसंविग्न और तीव्रसंविग्न कौन ? कर्त्तव्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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