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________________ (२९) २७९३-२८०२. अबहुश्रुत के त्वग्दोष होने पर यतना विधि।। वाली यतना। २८०३-२८०६. हस्तकर्म आदि से शुक्र निष्कासन। २९१२. . स्वदेशस्थ मुनियों के प्रति की जाने वाली यतना। २८०७.२८१२. शुक्र निष्कासन के विविध उपाय। २९१३,२९१४. अभिनिवारिका से आगत मुनि गुरु के पास कब २८१३-२८१८. साध्वी के एकाकी रहने के दोष । जाए? - २८१९-२८२३. संयम भ्रष्ट साध्वी के पुनः प्रव्रजित होने की २९१५. कालवेला के अपवाद के कारण। आकांक्षा। २९१६. कालवेला में न आने पर प्रायश्चित्त । २८२४-२८३१. संयमभ्रष्ट साध्वी को गण से विसर्जित करने की | २९१७,२९१८. प्राघूर्णक मुनियों के आने पर तत्रस्थ मुनियों का विधि। कर्त्तव्य। २८३२,२८३३. इत्वरिक और यावत्कथिक दिग्बंध का कथन। | २९१९,२९२०. आगत मुनियों का तीन दिनों का आतिथ्य और २८३४. सूत्र की संबंध गाथा। भक्षाचर्या की विधि। २८३५-२८३८. गण से निर्गत भिक्षुणी का पुनः आना। २९२१,२९२२. निर्ग्रन्थ सूत्र के बाद निर्ग्रन्थी सूत्र का कथन और २८३९-२८४१. अन्यदेशीय वस्त्रों से प्रावृत भिक्षुणी को देखकर उसकी प्रांसगिकता। तृषभों का ऊहापोह। २९२३. साध्वी के परोक्षतः संबंध-विच्छेद का कथन। २८४२-२८४५. साध्वियों द्वारा लब्ध वस्त्रों को गुरु को दिखाने २९२४-२९२८. संयतीवर्ग को विसांभोजिक करने की विधि। की परम्परा और न दिखाने पर प्रायश्चित्त। २९२९. निर्ग्रन्थिनी की दीक्षा का प्रयोजन। २८४६,२८४७. प्रवर्तिनी को गुरुतर दंड के लिए शिष्य का प्रश्न | २९३०-२९३३. सूत्रगत प्रयोजन के बिना साध्वी को प्रव्रजित करने एवं आचार्य का उत्तर। के दोष। २८४८-२८५३. पति द्वारा परित्यक्त स्त्री की प्रव्रज्या और उसे मुनि पुरुष को और साध्वी स्त्री को प्रव्रजित पुनः गृहस्थ जीवन में लाने में परिवाजिका की करे-इस विषयक शिष्य का प्रश्न और आचार्य भूमिका। का समाधान। २८५४-२८६०. प्रव्रज्या के पारग-अपारक की परीक्षण। २९४१,२९५०. स्त्री को प्रव्रजित करने की चार तुलाएं एवं उनका २८६१-२८६६. मायावी भिक्षुणी द्वारा छिद्रान्वेषण। विवरण। २८६७. सूत्र और अर्थ की पारस्परिकता। २९५१,२९५२. साध्वी का साधु को प्रव्रजित करने का उद्देश्य। २८६८. अन्य गण से आगत साध्वियों को वाचना आदि। | २९५३-२९६१. क्षेत्रविकृष्ट तथा भवविकृष्ट दिशा संबन्धी विवरण २८६९. आभीरी की प्रव्रज्या, विपरिणाम और उसका तथा दृष्टान्त। प्रायश्चित्त। २९६२-२९६८. अन्य आचार्य के पास जाने की इच्छुक भिक्षुणी के २८७०-२८७७. समागत निर्ग्रन्थी को गण में न लेने के कारण और मार्गगत दोष। प्रायश्चित्त। २९६९-२९७२. क्षेत्रविकृष्ट, भवविकृष्ट विषयक अपवाद। २८७८-२८९१. प्राघूर्णक मुनि की विविध शंकाएं एवं उनके आधार २९७३-२९७८. निर्ग्रन्थ संबंधी क्षेत्रविकृष्ट तथा भव-विकृष्ट का पर विसांभोजिक करने पर प्रायश्चित्त। विवरण। २८९२-२८९५. परोक्ष में विसांभोजिक करने के दोष । २९७९-३००६. कलह और अधिकरण के विविध पहलू तथा २८९६-२९०५. सांभोजिक और विसांभोजिक व्यवहार किसके उपशमन विधि। साथ? ३००७-३०१३. निर्ग्रन्थिनियों के पारस्परिक कलह के कारण एवं २९०६. आगत मुनियों की द्रव्य आदि से परीक्षा और फिर उपशमन विधि। सहभोज। ३०१४,३०१५. स्वपक्ष के द्वारा परपक्ष को स्वाध्याय के लिए उद्दिष्ट २९०७. ज्ञात-अज्ञात के साथ बिना आलोचना के सहभोज करने पर प्रायश्चित्त। करने पर प्रायश्चित्त। ३०१६. स्तुति और स्तव की परिभाषा। २९०८. ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा आर्य महागिरी से पूर्व नहीं, ३०१७. अकाल स्वाध्याय में ज्ञानाचार की विराधना। बल्कि आर्य सुहस्ति के बाद। ३०१८. कालादि उपचार के बिना विद्या की सिद्धि नहीं २९०९-२९११. विभिन्न क्षेत्रों से आए मुनियों के आने पर की जाने तथा क्षुद्र देवताओं द्वारा उपद्रव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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