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________________ पहला उद्देशक ८३ ७७३. मारितममारितेहि य तं तीरावेति छावएहिं तु। ७७६. जइ वि हु दुविधा सिक्खा, वण-महिस-हत्थि-वग्घाण पच्चलो जाव सो जातो।। आइल्ला होति गच्छवासम्मि। सिंह का दृष्टांत-इसी प्रकार गहन वन में सिंहनी अपने तह वि य एगविहारे, अत्यंत लघु शावक की रक्षा करती है तथा स्तनपान द्वारा तथा जा जोग्गा तीय भावेति॥ मृदुचर्वित मांस से उसका तब तक पोषण करती है जब तक वह यद्यपि गच्छवास में आद्य दोनों प्रकार की शिक्षाएं होती हैं। हड्डियां खाने न लगे। वह सिंहीशावक वनमहिष आदि के शावकों फिर भी एकाकीविहार के योग्य जो शिक्षा है उससे आत्मा को का व्यापादन कर सके या नहीं, वह सिंहनी उसको इतना समर्थ भावित करता है। बना देती है कि वह स्वयं वनमहिष, हाथी, व्याघ्र आदि को मारने ७७७. तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य। में समर्थ हो जाता है। तुलना पंचधा वुत्ता, पडिम पडिवज्जतो.।। ७७४. अकतपरिकम्ममसहं, दुविधा सिक्खा अकोविदमपत्तं। जो प्रतिभा को स्वीकार करना चाहता है उसकी ये पांच पडिवक्खेण उवमिमो, सउणिग-सीहादि छावेहिं॥ तुलाएं हैं-तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व तथा बल। (वह इन पांचों से जो मुनि अकृतपरिकर्मा है, असमर्थ है, दोनों प्रकार की अपने-आपको तोले।) . शिक्षाओं-ग्रहण और आसेवन में अकोविद है, जो श्रुत और वय ७७८. चउभत्तेहिं तिहिं उ छठेहिं अट्ठमेहि दसमेहिं। से अव्यक्त है ऐसे मुनि को प्रतिपक्ष अर्थात् असंजातपक्ष वाले बारस-चउदसमेहि य, धीरो धितिमं तुलेतऽप्पं ।। शकुनि, सिंह आदि के शावकों की उपमा से उपमित किया गया तपोभावना-मुनि तीन बार चतुर्थभक्त-उपवास करे, फिर तीन बार बेला, तीन बार तेला, तीन बार चोला, तीन बार ७७४/१. पव्वज्जा सिक्खावय, पंचोला, तीन बार छह दिन का तप यावत् छह मास के तप से वह अत्थग्गहणं च अणियतो वासो। धीर और धृतिमान मुनि अपनी आत्मा को तोले। निप्फत्ती य विहारो, ७७९. जह सीहो तह साधू, गिरि-नदि सीहो तवोधणो साधू। सामायारी ठिती चेव॥ वेयावच्चऽकिलंतो, अभिन्नरोमो य आवासे॥ प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति, जैसे सामान्यतः गुफा में रहने वाला सिंह गिरिनदी में तैरने विहार, सामाचारी, स्थिति। यह द्वारगाथा है। का अभ्यास करता है वैसे ही गच्छवासी तपस्या करने के अभ्यास ७७४/२. पव्वज्जा सिक्खावय,अत्थग्गहणं तु सेसए भयणा। में प्रवृत्त तपोधन मुनि आत्मवैयावृत्त्यकर होता है। आत्मवैयावृत्त्य सामायारिविसेसो, नवरं वुत्तो उ पडिमाए॥ में अक्लांत मुनि अवश्यकरणीय योगों में अभिन्नरोमा होता है, जो प्रतिमा स्वीकार करना चाहता है उसके लिए ये तीन रोममात्र भी क्लेश नहीं पाता। द्वार-प्रव्रज्या, शिक्षापद तथा अर्थग्रहण-नियमतः होते हैं। शेष ७८०. पढमा उवस्सयम्मी,बितिया बाहि ततिया चउक्कम्मि। द्वारों की भजना है। सामाचारी विशेष का कथन दशाश्रुतस्कंध के सुण्णघरम्मि चउत्थी, पंचमिया तह मसाणम्मि॥ भिक्षुप्रतिमा अध्ययन में प्रतिपादित है। सत्त्वभावना के अभ्यास का क्रम-पहली सत्त्वभावना ७७५. गणहरगुणेहिं जुत्तो, जदि अन्नो गणहरो गणे अत्थि। उपाश्रय में, दूसरी उपाश्रय के बाहर, तीसरी-चौराहे में, चौथी नीति गणातो इहरा, कुणति गणे चेव परिकम्म॥ शून्यगृह में और पांचवीं श्मशान में की जाती है। यदि गण में गणधर के गुणों से युक्त कोई अन्य गणधर हो ७८१. उक्कतितोवत्तियाई, सुत्ताई सो करेति सव्वाइं। तो उसे गण में स्थापित कर गण से बाहर जाकर परिकर्म करे। मुहुत्तपोरिसीए, दिणे य काले अहोरत्ते॥ अन्यथा गण में रहकर ही परिकर्म करे। सूत्रभावना-वह परिकर्मकारी साधु सभी सूत्रों को अनुक्रम और व्युत्क्रम से परावर्तन करने में समर्थ होता है। (वह १. जैसे उड़ने में असमर्थ शकुनि पोत यदि नीड से बाहर निकलता है तो होता है। काक, ढंक आदि पक्षियों से मारा जाता है। सिंह शावक जो क्षीराहारी २. प्रव्रज्या के दो प्रकार हैं- धर्मश्रवणतः-धर्म के श्रवण से विरक्त होकर है, वह यदि स्वतंत्र रूप से गुहा से बाहर आता है तो वह वनमहीष, प्रव्रज्या लेना तथा अभिसमन्वागत-अर्थात् जाति- स्मृति आदि से व्याघ्र आदि से उपद्रुत होता है। वैसे ही जो मुनि अकृतपरिकर्मा आदि प्रेरित होकर प्रव्रज्या लेना।। है वह यदि गच्छ से निकलकर एकाकी विहारप्रतिमा को स्वीकार ३. वह मुनि नौवें पूर्व की आचार नामक तीसरी वस्तु पूर्वोक्त प्रकार से करता है तो वह भी आत्मविराधना और संयमविराधना को प्रास परावर्तन करता है। उससे कालावबोध होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org सम Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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