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सानुवाद व्यवहारभाष्य
कालपरिमाण के अवबोध के निमित्त ऐसा करता है।) वह उच्छवास-निःश्वास परिमाण से मुहूर्त, मुहुर्त से अर्द्ध पौरुषी, उससे पौरुषी, फिर दिन और अहोरात्र के काल को जान लेता है। ७८२. अण्णो देहाओऽहं, नाणत्तं जस्स एवमुवलद्धं।
सो किंचि आहिरिक्कं, न कुणति देहस्स भंगे वि॥
एकत्वभावना-'मैं देह से अन्य हं'-इस प्रकार जिस परिकर्म करने वाले मुनि को आत्मा से देह का नानात्व उपलब्ध हो जाता है, भेदज्ञान हो जाता है, वह शरीर के नाश होने पर किंचिद् भी उत्त्रास नहीं करता। ७८३. एमेव य देहबलं, अभिक्खआसेवणाए तं होति।
लंखण-मल्ले उवमा, आसकिसोरे व्व जोग्गविते।।
इसी प्रकार बलभावना से देह को इस प्रकार भावित करना चाहिए कि वह क्षीण न हो। बार-बार तप आदि भावनाओं के अभ्यास से वे भावनाएं सिद्ध होती हैं और शरीरबल बढ़ता है। इसमें तीन उपमाएं हैं-लंखक, मल्ल और अश्वकिशोर। परिकर्मा की परीक्षा में दो योद्धाओं का निदर्शन है। ७८४. पज्जोयमवंतिवति खंडकण्ण सहस्समल्ल पारिच्छा।
महकाल छगल सुरघड, तालपिसाए करे मंसं॥
अवंतीपति प्रद्योत के खंडकर्म नामक मंत्री था। एक बार सहस्रयोधी (हजार के साथ लड़ने वाला) मल्ल ने राजा के पास वृत्ति की याचना की। मंत्री ने उसके साहस की परीक्षा के निमित्त उसे एक छाग और एक सुराघट देते हुए कहा-आज महाकाल श्मशान में जाकर मांस का भोजन कर लेना। वह सहस्रयोधी वहां गया। छाग को मारा, मांस पकाया और खाने के लिए बैठा। कुछ खाकर सुरा पी रहा था। इतने में ही तालपिशाच ने आकर मांस के लिए हाथ पसारा। उसने अभीत रहकर उस पिशाच को मांस दिया और स्वयं ने भी भरपेट मांस खाया। राजा को विश्वास हो गया कि यह भयरहित है, सहस्रयोधी है। ७८५. न किलम्मति दीघेण वि,
तवेण न वि तासितो वि बीहेति। छण्णे वि ठितो वेलं,
साहति पुट्ठो अवितधं तु ।। ७८६. पुरपच्छसंथुतेहिं, न सज्जती दिट्ठिरागमादीहिं।
दिट्ठी-मुहवण्णेहि य, अब्भत्थबलं समूहं ति।।
जो दीर्घ तपस्या से भी क्लांत नहीं होता, वह तपःपरिकर्मित है। जो किसी से त्रस्त होने पर भी डरता नहीं, वह सत्वपरिकर्मित है। जो मेघाच्छन्न आकाश अथवा भीतर में बैठा हुआ भी पूछे
जाने पर काल का सही परिमाण बता देता है, वह सूत्रभावना परिकर्मित है। जो माता-पिता आदि पूर्वसंस्तुत तथा भार्या, श्वसुर आदि पश्चात् संस्तुत व्यक्तियों को दृष्टिराग आदि अर्थात् स्निग्ध या आसक्त दृष्टि से तथा अवलोकन और स्फारित मुखवर्ण से नहीं देखता वह एकत्वभावना परिकर्मित है। अब अध्यात्मबल का कथन करते हैं। ७८७. उभओ किसा किसदढो,
दढो किसो यावि दोहि वि दढो य। बितिय-चउत्थ पसत्था,
धितिदेहसमस्सिया भंगा॥ बल के प्रसंग में चतुर्भगी
१. उभयतो कृश अर्थात् शरीर से भी कृश तथा धृति से भी कृश।
२. शरीर से कृश, धृति से दृढ़। ३. शरीर से दृढ़, धृति से कृश। ४. शरीर से दृढ़, धृति से दृढ़।
दूसरा और चौथा भंग प्रशस्त है क्योंकि दूसरे भंग में धृति की दृढ़ता है और चौथे भंग में शरीर और धृति-दोनों दृढ़ हैं। ७८८. सुत्तत्थझरियसारा, कालं सुत्तेण तु सुट्ठ नाऊणं।
परिजिय परिकम्मेण य, सुट्ठ तुलेऊण अप्पाणं ।। ७८९. तो विण्णवेति धीरा, आयरिए एगविहरणमतीया।
परियागसुतसरीरे, कतकरणा तिव्वसद्धागा।।
जो मुनि सूत्रार्थ के झरण अर्थात् परिवर्तना से सारभूत हो गए हैं वे सूत्र-परिकर्म से काल का सम्यक अवबोध कर अपने द्वारा अभ्यस्त तपः आदि परिकर्मों से अपनी आत्मा को सम्यक रूप से तोल लेते हैं और जो गृहस्थ और प्रव्रज्यापर्याय में, श्रुत के विषय में तथा शरीर के विषय में कृतकरण हैं, जो प्रवर्धमान श्रद्धा वाले हैं तथा जो एकाकीविहार प्रतिमा को स्वीकार करना चाहते हैं, वे धीर-महासत्त्व वाले पुरुष आचार्य को एकाकीप्रतिमा की साधना की अनुज्ञा देने के लिए निवेदन करते हैं। ७९०. एगूणतीसवीसा, कोडी आयारवत्थु दसमं च।
संघयणं पुण आदिल्लगाण तिण्हं तु अन्नतरं।।
पर्याय के दो प्रकार हैं--गृहीपर्याय और व्रतपर्याय। गृहीपर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष का हो और व्रतपर्याय जघन्यतः बीस वर्ष का हो और दोनों पर्याय उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटि के हों, जघन्यतः नौवे पूर्व की तृतीय आचारवस्तु यावत् श्रुत, उत्कर्षतः दसवें पूर्व तक का श्रुत तथा आदि के तीन संहननों में से कोई संहनन हो तो
१. नट अभ्यास करते-करते रस्सी पर भी नत्य करने लगता है। मल्ल अभ्यासवश संग्राम में हाथी आदि से भी पराभूत नहीं होता।
प्रतिदिन के अभ्यास से प्रतिमल्ल को जीतने में समर्थ हो जाता है। २. पूर्वकोट्यायुष्क मनुष्य की अपेक्षा से।
अश्वकिशोर पहले-पहले हाथी की निकटता से डरता है। फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only
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