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पहला उद्देशक वह मुनि एकाकीप्रतिमा स्वीकार कर सकता है।
करो, प्रभात हो चुका है। तब देवता ने उसे एक चपेटा मारा। ७९१. जइ विऽसि तेहववेओ, आतपरे दुक्करं खु वेरग्गं।। उसकी आंखें बाहर आ गिरी। तब उस क्षपक मुनि ने शैक्ष के
आपुच्छणा विसज्जण, पडिवज्जण गच्छसमवायं॥ प्रति अनुकंपा के वशीभूत होकर देवता की आराधना के लिए
जब मुनि एकलविहार की अनुज्ञा के लिए आचार्य को निवेदन कायोत्सर्ग किया। देवता ने तब सद्य व्यापादित एडक की करता है तब आचार्य उसके स्थिरीकरण के लिए पूछते हैं-शिष्य! सप्रदेश-सजीव आंखों की निवृत्ति-निष्पत्ति कर उसके लगा दी। यद्यपि तुम तपः आदि परिकर्म से युक्त हो, फिर भी आत्मसमुत्थ, ७९७. भावितमभविताणं, गुणा गुणण्णा इय त्ति तो थेरा। परसमुत्थ अथवा उभयसमुत्थ परिषहों के प्रति वैराग्य-राग-द्वेष वितरंति भावियाणं, दव्वादि सुभे य पडिवत्ती।। का निग्रहण दुष्कर होता है। इसलिए मैं तुम्हें पुनः पूछ रहा हूं। परिकर्म से भावित मुनि के गुणों तथा अभावित मुनि के यदि पृच्छा करने पर ज्ञात हो कि वह सम्यक् कृतपरिकर्मा है तो अगुणों को आचार्य जानते हैं। वे गुणज्ञ स्थविर-आचार्य पृच्छा उसे विसर्जन-एकलप्रतिमा की आज्ञा दे। अनुज्ञात कर देने पर के बाद भावित मुनियों को प्रतिमाप्रतिपत्ति कराते हैं। यह प्रतिपत्ति गच्छ को एकत्रित कर प्रतिमा की प्रतिपत्ति करे।
शुभ द्रव्य आदि में दी जाती है। ७९२. परिकम्मितो वि वुच्चति,
७९८. निरुक्स्सग्गनिमित्तं, उस्सग्गं वंदिऊण आयरिए। किमुत अपरिकम्म मंदपरिकम्मा। ___ आवस्सियं तु काउं, निरवेक्खो वच्चए भगवं। आतपरोभयदोसेसु,
प्रतिमा ग्रहण करने वाला मुनि निरुपसर्ग के लिए कायोत्सर्ग होति दुक्खं खु वेरग्गं॥ करता है। प्रतिमा स्वीकार कर आचार्य को वंदना करता है, फिर परिकर्मित मुनि को भी पूछा जाता है कि तुम अपरिकर्मा हो आवश्यकी करके, निरपेक्ष होकर वह वहां से चल पड़ता है। अथवा मंदपरिकर्मा। क्योंकि आत्मसमुत्थ, परसमुत्थ अथवा ७९९. परिजितकालामंतण, खामण तव-संजमे य संघयणा। उभयसमुत्थ दोषों के प्रति वैराग्य-राग-द्वेषशमनरूप प्रवृत्ति होना भत्तोवधिनिक्खेवे, आवण्णो लाभगमणे य॥ कष्टप्रद होता है।
परिचितश्रुतकाल, आमंत्रण, क्षामण, तप, संयम, संहनन, ७९३. पढम-बितियादलाभे, रोगे पण्णादिगा य आताए। भक्त, उपधि, निक्षेप, आपन्न-प्राप्त, लाभ तथा गमन-विहार-यह
सीउण्हादी उ परे, निसीहियादी उ उभए वि॥ द्वार गाथा है। (इसका विवरण ८०० से ८०६ तक की गाथाओं
प्रथम-द्वितीय परीषह अर्थात् भूख और प्यास, अलाभ, में)। रोग, प्रज्ञा आदि-ये परीषह आत्मसमुत्थ हैं। शीत-उष्ण आदि ८००. परिचियसुओ उ मग्गसिरमादि परीषह परसमुत्थ हैं तथा नैषेधिकी आदि परीषह उभयसमुत्थ हैं।
जा जेट्ठ कुणति परिकम्म। ७९४ एतेसुप्पण्णेसुं, दुक्खं वेरग्गभावणा काउं। एसोच्चिय सो कालो, पुव्वं अभावितो खलु, जध सेहो एलगच्छो उ॥
पुणरेति गणं उवग्गम्मि॥ जो पूर्व में अभावित है, उसके लिए एडकाक्ष शैक्ष की भांति परिचितश्रुत मुनि मृगशिर महीने से प्रारंभ कर ज्येठ मास समुत्पन्न परीषहों के प्रति वैराग्य भावना-राग-द्वेष की निग्रहण- तक परिकर्म करता है। यह प्रतिमा स्वीकार करने वाले के परिकर्म भावना करना कष्टप्रद होता है।
का उत्कृष्ट काल है। वह उपाग्र अर्थात् समीपवर्ती आषाढ़ मास में ७९५. परिकम्मणाय खवगो, सेह बालमोडि सो तध ठाति। वर्षाकालयोग्य उपधि लेने के लिए पुनः अपने गण में आता है।
पाभातियउवसग्गे, कतम्मि पारेति सो सेहो॥ ८०१. जो जति मासे काहिति, पडिमं सो तत्तिए जहण्णेण। ७९६. पारेहि तं पि भंते!, देवयअच्छी चवेडपाडणया। कुणति मुणी परिकम्म, उक्कोसं भावितो जाव।।
काउस्सग्गाऽऽकंपण, एलगस्सपदेस निवित्ती॥ जो मुनि जितने मास की प्रतिमा का वहन करेगा, वह
एक परिकर्मा क्षपक एकलविहारप्रतिमा में स्थित था। एक जघन्यतः उतने मास तक परिकर्म करता है। परिकर्म का उत्कृष्ट अपरिकर्मा शैक्ष मुनि भी हठात् क्षपक की भांति प्रतिमा में स्थित काल है-जितने काल में परिपूर्ण रूप से आगमोक्त विधि से हो गया। एक देवता ने आधी रात में प्राभातिक वेला का आभास भावित होता है उतना काल। कराकर उपसर्ग किया और वह शैक्ष प्रतिमा को सम्पन्न कर ८०२. तव्वरिसे कासिंची, पडिवत्ती अन्नहिं उवरिमाणं। जाते-जाते उस क्षपक से कहा-भंते ! तुम भी प्रतिमा को सम्पन्न
आइण्णपतिण्णस्स तु, इच्छोए भावणा सेसे॥ १. आचार्य अपने संपूर्ण संघ के साथ उसका अनुगमन करते हैं। नगर के तक देखते रहते हैं जब तक वह आंख से ओझल न हो जाए।
बाहर तक जाकर वे वहां एकटक प्रतिमाधारी मुनि को जाते हुए तब Jain Education International For Private & Personal Use Only
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