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________________ ૮૨ सानुवाद व्यवहारभाष्य करना चाहिए। का वहन करना पड़ता है। अथवा उसके लौटने पर आचार्य प्रसन्न ७६१. सरमाणो जो उ गमो, अस्सरमाणे वि होति एमेव। होकर पारिहारिक द्वारा निक्षिप्त देशतः या सर्वतः परिहारतप से एमेव मीसगम्मि वि, देसं सव्वं च आसज्ज॥ उसे मुक्त कर देते हैं। सूत्र के तीन प्रकार हैं-स्मरणसूत्र, अस्मरणसूत्र और ७६७. वेयावच्चकराणं, होति अणुग्घातियं पि उग्घातं । मिश्रकसूत्र । स्मरण सूत्र में जो गम है वैसा ही अस्मरण में है और सेसाणमणुग्घाता, अप्पच्छंदो ठवेंताणं॥ उसी प्रकार का गम मिश्रकसूत्र में भी है। तीनों सूत्रों में देश या (तीर्थंकरों ने कहा है) वैयावृत्त्य करने वालों के झोष होता सर्व से वहन, निक्षेपण और झोष कहा गया है। है, अनुद्घातित को उद्घातित कर दिया जाता है। शेष मुनियों को ७६२. विज्जानिमित्त उत्तरकहणे अप्पाहणा य बहुगा उ। उद्घातित प्राप्त होने पर भी उन्हें अनुद्घातित प्रायश्चित्त दिया अतिसंभम तुरति विणिग्गयाण दोण्हं पि विस्सरितं॥ जाता है। जो वैयावृत्त्य नहीं करते तथा स्वच्छंदता से परिहारतप विद्याओं को ग्रहण कराने के निमित्त, प्रतिवादिविषयक का निक्षेप करते हैं, वे यदि उद्घातित का वहन करते रहे हों तो उत्तरकथन में तथा अनेक संदेश देने के कारण आचार्य अतिसंभ्रम उन्हें अनुद्घातित दिया जाता है और यदि अनुद्घातित परिहारतप में तथा प्रातिहारिक वादी मुनि भी संभ्रम के कारण वहां से शीघ्र का निक्षेप किया है तो उन्हें उपरितन प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रस्थान कर देता है। वह और आचार्य-दोनों परिहारतप के निक्षेपण ७६८. निग्गमणं तु अधिकितं, अणुवत्तति वा तवाधिकारो उ। की बात भूल जाते हैं। तं पुण वितिण्णगमणं, इमं तु सुत्तं उभयधा वि।। ७६३. पुव्वं सो सरिऊणं, संपत्थित विज्जमादिकज्जेहिं। पूर्वसूत्र में निर्गमन की अपेक्षा से कथन किया गया था। जस्स पुणो विस्सरियं, निव्विसमाणो तधिं पि वए। प्रस्तुत में भी वही निर्गमन कहा जाता है तथा पूर्वसूत्र के तपोधिकार पहले उसको यह स्मृति होती है कि मुझे परिहारतप का की यहां अनुवृत्ति है। पूर्वसूत्र में वितीर्ण निर्गमन की अनुज्ञा थी। निक्षेप कर जाना है, परंतु प्रस्थानकाल में विद्या आदि ग्रहण करने इस सूत्र में उभय अर्थात् वितीर्ण तथा अवतीर्ण का कथन है। के कार्यों में व्याकुल होने के कारण वह भूल जाता है, तो वह ७६९. संथरमाणाणं विधी, आयारदसासु वण्णितो पुव्विं। निर्विशमान होकर जाता है। सो चेव य होति इहं, तस्स विभासा इमा होति ।। ७६४. देसं वा वि वहेज्जा, देसंच ठवेज्ज अहव झोसेज्जा। जो सूत्रोक्त विधि से प्रतिमा को स्वीकार करने की योग्यता सव्वं वा वि वहेज्जा, ठवेज्ज सव्वं व झोसेज्जा॥ तथा उसके परिपालन की क्षमता प्राप्त कर लेता है, वह संस्तरन् तीनों सूत्रों में कहा गया है कि ऐसी स्थिति में परिहारतप के कहलाता है। उसकी विधि-सामाचारी आचारदशा-दशाश्रुतस्कंध देश का अथवा सर्व का वहन, निक्षेपण अथवा झोष कर सकता . के भिक्षु प्रतिमाध्ययन में पूर्व वर्णित है। यहां भी वही सामाचारी है। उसका विवरण यह है। ७६५. निक्खिव न निक्खिवामी, पंथेच्चिय देसमेव वोज्झामि। ७७०. घरसउणि सीह पव्वइय, असहू पुण निक्खिवते झोसंति मुएज्ज तवसेसं।। सिक्ख परिकम्मकरण दो जोधा। विशेष कार्य के लिए भेजने के प्रसंग में आचार्य पारिहारिक थिरकरणेगच्छखमदुग, को कहते हैं-तुम अभी परिहारतप का निक्षेप कर दो, छोड़ दो। गच्छारामा ततो णीति ॥ वह कहता है-मैं उसका निक्षेप नहीं करूंगा। मार्ग में ही उसके गृहशकुनी, सिंह, प्रव्रजन, शिक्षा, परिकर्मकरण, दो योद्धा, एक देश का वहन कर लूंगा। मैं समर्थ हूं। यदि वह असमर्थ हो तो स्थिरीकरण, एकाक्ष, क्षपणद्वय-ये उदाहरण वक्तव्य हैं। वह वह उसका निक्षेप कर दे। अथवा आचार्य उस पर कृपाकर शेष गच्छाराम से निर्गमन करता है। तप का झोष कर देते हैं, उसे उससे मुक्त कर देते हैं। ७७१. वासगगतं तु पोसति, चंचूपूरेहि सउणिया छावं। ७६६. एमेव य सव्वं पि हु, दूरद्धाणम्मि तं भवे नियमा। वारेति तमुटुंतं, जाव समत्थं न जातं तु॥ एमेव सव्वदेसे, वाहणझोसा पडिनियत्ते।। शकुनि दृष्टांत-जैसे पक्षिणी नीडगत अपने बच्चे का अपनी - इसी प्रकार सारा बाह्य, निक्षेपणीय और झोषणीय नियमतः चोंच को भर-भर कर पोषण करती है तथा जब तक वह पूर्ण दीर्घमार्ग के प्रसंग में होता है। मुनि के प्रतिनिवृत्त होने पर देश का समर्थ नहीं हो जाता तब तक उसे नीड से बाहर उड़ने-जाने से अथवा सर्व का बाह्य और झोष होता है। यदि जाते समय देश का रोकती है। निक्षेप किया है तो लौट आने पर देश तप का वहन करना पड़ता ७७२. एमेव वणे सीही, सा रक्खति छावपोयगं गहणे। है और यदि सर्व का निक्षेप किया है तो प्रतिनिवृत्त होने पर सर्व खीरमिउपिसियचव्विय, जा खायइ अट्ठियाई पि॥ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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