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________________ १२० सानुवाद व्यवहारभाष्य मुनिपिता अपने स्वजनों को डराए, बुरा-भला कहे और जाते हैं।' वहां का स्वामी कहता है-यह मेरा दास है। मैं इसे मुक्त उन्हें कहे कि हमने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली परंतु धन का विभाग नहीं करूंगा। नहीं किया था। तुमको लज्जा क्यों नहीं आई कि मेरा पुत्र दासत्व ११९२. नाहं विदेस आहरणमादि विज्जा य मंत-जोगा य। को प्राप्त हुआ। मैं स्वयं राजकुल में जाऊंगा। वहां मुकदमा कर मैं निमित्ते य रायधम्मे, पासंड गणे धणे चेव॥ संपत्ति का अत्यधिक भाग लूंगा। इस प्रकार भी समाधान न होने मैं वह नहीं हूं। मैं विदेश में उत्पन्न हूं। उदाहरण आदि। पर जहां जो वेश पूजनीय है, वैसा वेश करे। उस वेश को पूजने विद्या, मंत्र, योग, निमित्त, राजा, धर्म, पाषंड, गण, धन आदि। वाले विशेष अनुयायियों को बालक की मुक्ति के लिए प्रज्ञापित (यह द्वार गाथा है। विवरण आगे की गाथाओं में।) करे। ११९३. सारिक्खतेण जंपसि, जातो अण्णत्थ ते वि आमं ति। ११८७. पुट्ठा व अपुट्ठा वा, चुतसामिनिधिं कधिंति ओहादी। बहुजणविण्णायम्मि उ, थावच्चसुतादिआहरण। घेत्तूण जावदट्ठो, पुणरवि सारक्खणा जतणा॥ मैं तो अन्यत्र जन्मा हूं। तुम सादृश्य के कारण ऐसा कह रहे पूछने पर या न पूछने पर अवधिज्ञानी आदि विशिष्ट ज्ञानी हो। वहां के वासी भी कहते है-हां, यह ठीक है। बहुजन-विज्ञात उस मुनिपिता को च्युतस्वामिक निधि के विषय में बताते हैं। होने पर पूर्वोक्त बात न कहकर स्थापत्यापुत्र आदि का उदाहरण उसमें से जितना प्रयोजन हो उतना धन निकालकर, पुनः उस कहना चाहिए। निधि का संरक्षण, करना चाहिए। लौटते हुए यतना करनी चाहिए। ११९४. विज्जादी सरभेदण, अंतद्धाणं विरेयणं वावि। ११८८. सोऊण अट्ठजातं, अट्ठ पडिजग्गते उ आयरिओ। वरघणुग-पुस्सभूति, गुलिया सुहुमे य झाणम्मि॥ संघाडगं च देती, पडिजग्गाति णं गिलाणं पि॥ विद्या, मंत्र, योग, अंतर्धान, विरेचन, वरधनु की भांति प्रयोजन के निमित्त जाते साधु की बात सुनकर आचार्य मृतवेष, पुष्यमित्र आचार्य की भांति सूक्ष्मध्यान के द्वारा तथा उस प्रयोजन के प्रति जागरूक हो जाते हैं। उसके साथ यदि गुटिका के द्वारा अन्य प्रयोगों से उस मुनि का संरक्षण करना दूसरा मुनि नहीं है तो उसे मुनि का साथ देते है। ग्लान होने पर चाहिए। उसकी उपेक्षा नहीं करते, उसके प्रति जागृत रहते हैं। उचित ११९५. असतीए विण्णवेंति, रायाणं सो वि होज्ज अह भिन्नो। चिकित्सा कराते हैं। तो से कहेज्ज धम्मो, अणिच्छमाणे इमं कुज्जा॥ ११८९. काउं निसीहियं अट्ठजातमावेदणं गुरूहत्थे। इन प्रयोगों के अभाव में राजा को निवेदन करना चाहिए। दाऊण पडिक्कमते, मा पेहंता मिगा पस्से॥ यदि राजा भी उन प्रतिपक्षियों द्वारा व्युद्ग्राहित हो गया हो तो (लौटते समय की यतना) लौटता हुआ वह मुनि अन्यगण उसे धर्म की बात कहनी चाहिए। यदि वह धर्म की बात मानना न में प्राघूर्णक होता है। वहां नैषेधिकी कर, गुरु को प्रयोजन के चाहे तो इस प्रकार करेविषय में निवेदन करे तथा निधि को गुरु के हाथ में देकर वहां ११९६. पासंडे व सहाए, गेण्हति तुज्झं पि एरिसं होज्जा। चला जाए। वे मृग की भांति अगीतार्थ मुनि उसके पास कुछ भी होहामो य सहाया, तुब्भं पि जो व गणो बलियो। न देखकर उस निधि को गुरु के हाथ में देखते हैं। ___ अन्य पाषंडियों की सहायता ले। उन्हें कहे-तुम्हारे लिए ११९०. सण्णी व सावगो वा, केवतिओ देज्ज अठ्ठजातस्स। भी ऐसा प्रयोजन हो सकता है। तब हम तुम्हारे सहायक बनेंगे। पच्चुप्पण्णनिहाणे कारणजाते गहणसोधी॥ अथवा जो गण बलवान् हो उसका सहयोग ले। जहां संज्ञी अथवा श्रावक हो तो उसे सारी बात कहे। जो ११९७. एतेसिं असतीए, संता व जदा ण होति उ सहाया। नया निधान गृहीत है उसमें से प्रयोजन के लिए जितना भाग देना ठवणा दूराभोगण, लिंगेण व एसितुं देंति॥ चाहे वह कारण में ग्रहण करने पर भी शुद्ध है, प्रायश्चित्त- भाक इन सबके अभाव में तथा संत भी जब सहायक न हों तब नहीं है। निष्क्रमण के समय जो धन स्थापित किया था, वह देकर उसे ११९१. थोवं पि धरेमाणो, कत्थति दासत्तमेति अदलंतो। मुक्त कराए। दूराभोग-दूर देश के अस्वामिक निधान का आभोग, परदेसम्मि वि लब्भति, वाणियधम्मे ममेस त्ति॥ अर्चित लिंग धारण कर धन की एषणा करे और उसे दे। कहीं कोई व्यक्ति थोड़ा ऋण भी न चुका पाने के कारण ११९८. एमेव अणत्तस्स वि, तवतुलणा नवरि एत्थ नाणत्तं। दासत्व को प्राप्त हो जाता है। कदाचित् वह परदेश चला जाता जं जस्स होति भंडं, सो देति ममंतिगो धम्मो॥ है। वहां स्वदेशवासी कोई वणिक् के जाने पर वह मिल जाता है। इसी प्रकार जो ऋण से पीड़ित है उसकी मुक्ति के लिए भी 'वणिधर्म यह है कि परदेश में गए वणिक् अपने आत्मीय को पा प्रयत्न करना चाहिए। दासत्वप्राप्त और ऋणात में कुछ नानात्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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