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________________ I १४८ १५११. दुक्खत्ते अणुकंपा, अणुसासण भज्जमाणरुट्ठे वा । जो वा जहुत्तकारी, अणुसासणकिच्चमेतं तु १५१२. पूयण अधागुरूणं, अब्भंतर दोह उल्लवेंताणं । ततियं कुणती बहिया, बेति गुरूणं च तं इट्ठो ॥ १५१३. संभुंजण संभोगेण, भुज्जते जस्स कारगं भत्तं । तं घेत्तुमप्पणागं, देती एमेव उवहिं पि॥ १५१४. अणुकरणं सिव्वण लेवणादि, अणुभासणा तु दुम्मेधो । एरिस तस्स निसग्गो, जं भणियं एरिससभावो ॥ वचन विषयक-किसी ने अभिग्रह अर्थात् मौनव्रत ले लिया है। उस स्थिति में किसी के प्रश्न पूछने पर जो उसका उत्तर देता है, वह वचनसंग्रहकुशल है । वाचना देते हुए गुरु क्लांत होने पर स्वयं साधुओं को वाचना देना, आचार्य के बोलने के पश्चात् बोलना, ग्लान आदि की दृष्टि से देश काल के अनुसार आचार्य को स्मृति दिलाना, दुःखार्त्त के प्रति अनुकंपा रखना, जो मुनि संयम से च्युत हो रहे हों उन पर अनुशासन करना, अथवा जो यथोक्तकारी नहीं होता उस पर अनुशासन करते हुए कहना कि यह तुम्हारे लिए अकृत्य है, यथाक्रम गुरुजनों की पूजा करना, अभ्यंतरकरण अर्थात् दो मुनि परस्पर महत्वपूर्ण विचार-विमर्श कर रहे हों और तीसरा उसे सुन रहा हो तो उसे बाहर करना अथवा जो स्वयं को इष्ट हो वह भीतर जाकर गुरु को कहना। जो सांभोगिकों के साथ भोजन करता है, अथवा जो जिसका कारक - उपकारक होता है, वह भक्त-आहार आदि स्वयं लाकर उसको देता है, इसी प्रकार उपधि भी स्वयं लाकर उसको देता है। अनुकरण अर्थात् मुनि को सीवन, लेपन आदि करते देखकर कहता है- इच्छाकार से मैं यह तुम्हारा कार्य कर दूंगा। वह स्वयं उस कार्य को करता है अथवा दूसरों से भी कहकर वह मंद मुनि के लिए कार्य करवाता है। यह उसका निसर्ग स्वभाव है। ऐसे स्वभाव वाला होता है संग्रहकुशल । १५१५. बाला सहु वुढेसुं संत तवकिलंतवेयणातंके । सेज्ज - निसेज्जोवधि-पाणमसण-भेसज्जुवग्गहिते || १५१६. दाण-दवावण-कारावणेसु, करणे य कतमणुण्णाए । उवहितमणुवहितविधी, जाणाहि उवग्गहं एयं ॥ बाल, असह, वृद्ध, श्रांत, तपःक्लांत, वेदना, आतंक, शय्या, निषद्या, उपधि, पानक, अशन, भेषज, औपग्रहिकइनको देना, दिलाना, कराना, कृत- अनुज्ञात, उपहित, अनुपहित विधि को जानना - इन सब उपग्रहों को जानता है। (इनकी व्याख्या अगले श्लोकों में।) १५१७. बालादीणं तेसिं, सेज्जनिसेज्जोवधिप्पदाणेहिं । भत्तन्नपाण-भेसजमादीहि उग्गहं कुणति ॥ Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य १५१८. देति सयं दावेति य, करेति कारावए य अणुजाणे । उवहित जं जस्स गुरुहिं, दिण्णं तं तस्स उवणेति ॥ १५१९. अणुवहितं जं तस्स उ, दिन्नं तं देति सो उ अन्नस्स । खमासमणेहि दिण्णं, तुब्भं ति उवग्गहो एसो ॥ इन बाल, असमर्थ, वृद्ध आदि को शय्या, निषद्या, उपधि देने तथा भक्त, अन्न, पान, भैषज आदि देकर उपग्रह करता है, स्वयं उनको ये सारी चीजें देता है, दिलाता है, स्वयं वैयावृत्त्य आदि करता है अथवा दूसरों से करवाता है तथा करने वाले का अनुमोदन करता है यह उपग्रह है। तथा गुरु ने जिसको जो दिया है, उसको वह देता है, यह उपहित विधि है । जिसको जो दिया है उसको वह गुरु की आज्ञा से दूसरों को यह कहकर देता है कि क्षमाश्रमण ने तुमको यह दिया है। यह अनुपहितविधि है । यह उपग्रह है। ऐसा मुनि उपग्रहकुशल होता है। १५२०. आधाकम्मुद्देसिय, ठविय रइय कीय कारियच्छेज्जं । उब्भिण्णाऽऽहडमाले, वणीमगाऽऽजीवग निकाए ॥ १५२१. परिहरति असण-पाणं, सेज्जोवधिपूति - संकितं मीसं । जुत्तो ॥ अक्खुतमसबलमभिन्नऽसंकिलिट्ठमावासए जो आधाकर्मिक, औद्देशिक, स्थापित, रचित - पात्र में आहार रखकर उसके चारों ओर बहुविध व्यंजन सजाना, क्रीत - खरीदा हुआ, कारित, आच्छेद्य-भृतक आदि के आहार का छेदन कर देना, उद्भिन्न- पात्र के स्थगितमुख को खुलाकर लेना, आहृत, मालापहृत, वनीपक पिंड, आजीवन-जाति आदि जता कर लेना, निकाचित- इतना देना है-इस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध कर लेना- जो इस प्रकार के अन्न-पान, शय्या, उपधि तथा पूति, शंकित और मिश्रजात का परिहार करता है और आवश्यक में युक्त होता है वह अक्षताचार, अशबलाचार, अभिन्नाचार तथा असंक्लिष्ट आचार वाला होता है। अथवा जो स्थापित आदि का परिहार करता है वह अक्षताचार, जो अभ्याहृत आदि का परिहारी होता है वह अशबलाचार, जात्योपजीवी का परिहारी अभिन्नाचार तथा दोष परिहारी असंक्लिष्टाचार वाला होता है।) १५२२. ओसन्न खुयायारो, सबलायारो, य होति पासत्थो । भिन्नायारकुसीलो, संसत्तो संकिलट्ठो उ ॥ जो अवसन्न- आवश्यक आदि में अनुद्यमी होता है वह क्षताचार होता है, जो उद्गम आदि भोजी पार्श्वस्थ शबलाचार होता है, जो जात्यादि से जीवन चलाता है वह कुशील मुनि भिन्नाचार होता है जो स्थापितभोजी होता है वह संसक्त और जो संक्लिष्ट होता है वह संक्लिष्टाचार होता है। १५२३. तिविधो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । सुत्तधरवज्जियाणं, तिग- दुगपरिवडणा गच्छे ॥ प्रकल्पधर के तीन प्रकार हैं-सूत्रतः, अर्थतः तथा www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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