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तीसरा उद्देशक
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प्रवचनकुशल वह होता है जो सूत्र और अर्थ को हेतु- १५०३. जाहे य पहरमेत्तं,कधियं न य मुणति कालमध राया। कारण (अन्वय-व्यतिरेकपूर्वक) से व्याकृत करने में समृद्ध है
तो बेति खुड्डगगणी, रायाणं एव जाणाहि। तथा चित्त-आश्चर्यभूत श्रुत को धारण करता है, जो पौराण और १५०४. जघ उद्वितेण वि तुमे,न वि णातो एत्तिओ इमो कालो। दुर्द्धर अर्थों को धारण करने में समर्थ होता है, जो श्रुतरत्न रूपी
इय गीत-वादियविमोहिया उ देवा न जाणंति॥ निधान से प्रतिपूर्ण है, जिसने प्रवचन को धारणा का विषय १५०५. अब्भुवगतं च रण्णा, कधणाए एरिसो भवे कुसलो। बनाया है, उसे गुणित अर्थात् बहुत बार परावर्तित किया है, उसे
ससमयपरूवणाए, महेति सो कुसमए चेव॥ समीहित-पूर्वापर संबंध से जाना है, उसका निर्यापण-निर्दोष- एक बार मुरुंड राजा ने प्रज्ञप्सिकुशल क्षुल्लकगणी से रूप से निश्चित किया है, जो विपुल वाचना से समृद्ध है, जो पूछा-'भंते !' बीते हुए काल को देवता क्यों नहीं जानते ? प्रश्न प्रवचन में कुशल तथा उसके गुणों की निधि है, जो प्रवचन से पूछने के साथ ही गणधर क्षुल्लकगणी अपने आसन से उठे। आत्महित करने में समर्थ तथा प्रवचन का अहित करने वालों का गणी को खड़े देखकर राजा भी संभ्रांत होकर खड़ा हो गया। निग्रह करने में समर्थ होता है।
क्षुल्लकगणी क्षीराश्रवलब्धि से सम्पन्न थे। वे व्याख्यान देने १४९७. नयभंगाउलयाए, दुद्धर इव सद्दो होति ओवम्मे। लगे। एक प्रहर बीत गया। राजा एक प्रहर के कथन-काल को
धारियमविप्पणटुं, गुणितं परिवत्तियं बहसो॥ जान नहीं सका। तब क्षुल्लकगणी ने राजा से कहा-जैसे तुम १४९८. पुव्वावरबंधेणं, समीहितं वाइयं तु निज्जवितं। खड़े-खड़े एक प्रहरकाल को नहीं जान पाए, उसी प्रकार देवता
बहुविधवायणकुसलो, पवयणअहिए य निग्गिण्हे॥ भी गीत-नृत्य वादित्र आदि में मूढ़ होकर प्रभूत काल को नहीं नय और भंगों से अत्यंत गहन होने के कारण जो प्रवचन जान पाते। राजा ने गणी के कथन को स्वीकार किया और जान दुर्द्धर होता है-सामान्य व्यक्ति उसे समझ नहीं पाता। यहां 'इव' लिया कि कथन करने में-प्रज्ञप्ति में ऐसा कुशल भी होता है। जो शब्द उपमा में प्रयुक्त है। जो ऐसे प्रवचन को अविनष्टरूप में स्वसमय की प्ररूपणा में तथा कुसमय के मथने में कुशल होता है धारण करता है, जिसने ऐसे प्रवचन को गुणित अर्थात् बहुत बार । वह प्रज्ञप्तिकुशल कहलाता है। परावर्तित किया है, जिसने उसको समीहित-पूर्वापरसंबंध से १५०६. दव्वे भावे संगह, दव्वे तू उक्ख हारमादी तु। सम्यक् जान लिया है, जिसने प्रवचन को वाचित अर्थात् आक्षेप-
साहिल्लादी भावे, परूवणा तस्सिमा होति॥ परिहारपूर्वक गुरु के पास निर्यापित अर्थात् निर्णीत अर्थ से
संग्रह के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंग्रह और भावसंग्रह। ज्ञानगत कर लिया है, तथा जो अनेक प्रकार की वाचनाओं में उक्ष-बैल तथा आहार आदि का संग्रह द्रव्यसंग्रह है। भाव कुशल है और प्रवचन का अहित करने वालों का निग्रह करने में विषयक संग्रह है-साहाय्य आदि का। उसकी यह प्ररूपणा है। समर्थ है, वह प्रवचनकुशल कहलाता है।
१५०७. साहिल्ल वयण-वायण१४९९. लोगे वेदे समए, तिवग्गसुत्तत्थगहितपेयालो।
अणुभासण-देस-कालसंसरणं। धम्मत्थ-काम-मीसग, कधासु कहवित्थरसमत्थो॥ अणुकंपणमणुसासण, १५०० जीवाजीवा बंधं, मोक्खं गतिरागतिं सुहं दुक्खं ।
- पूयणमब्भंतरं करणं ।। पण्णत्तीकुसलविदू, परवादिकुदंसणे महणो॥ १५०८. संभुंजण संभोगे, भत्तोवधिअन्नमन्नसंवासो। जिसने लौकिक, वैदिक तथा सामयिक-इस त्रिवर्ग के
संगहकुसलगुणनिधी, अणुकरणकरावणनिसग्गो।। सूत्रार्थ के परिमाण को ग्रहण कर लिया है, जो धर्मकथा, साहिज्ज-सहायकृत्यकरण वचन, वाचना, अनुभाषण, अर्थकथा, कामकथा और मिश्रकथा का विस्तार से कथन करने में देश-काल संस्मरण, अनुकंपन, अनुशासन, पूजन, समर्थ है तथा जो जीव, अजीव, बंध, मोक्ष, गति, आगति, सुख- अभ्यंतरकरण, संभोग से संभोजन, भक्त, उपधि, दुःख की प्ररूपणा में कुशल तथा परवादियों के कुदर्शन का मथन अन्योन्यावास, संग्रहकुशल गुणनिधि अनुकरण-कारापण करने में समर्थ है, वह प्रज्ञप्तिकुशल होता है।
निसर्ग। (इन शब्दों की व्याख्या अगली गाथाओं में।) १५०१. पण्णत्तीकुसलो खलु, जह खुड्डगणी मुरुंडराईणं। १५०९. वयणे तु अभिग्गहियस्स, केणती तस्स उत्तरं भणति।
पुट्ठो कध न वि देवा, गतं पि कालं न याणंति॥ वायणाए किलंते उ, गुरुम्मी वायणं देती। १५०२. तो उछितो गणधरो, राया वि य उछितो ससंभंतो। १५१०. साधूणं अणुभासति, आयरिएणं तु भासिते संते। अध खीरासवलद्धी, कधेति सो खुड्डगगणी उ॥
सारेताऽऽयरियाणं, देसे काले गिलाणादी॥ For Private & Personal Use Only
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