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________________ १४६ सानुवाद व्यवहारभाष्य १४८२.अफरुस-अणवल-अचवलकुक्कुयमदंभगोमसीभरगा।। त्रिन्द्रिय-चतुन्द्रिय-पचेन्द्रियसंयम, अजीवसंयम, प्रेक्षासंयम, सहित-समाहित-उवहितगुणनिधि आयारकुसलो॥ उपेक्षासंयम, प्रमार्जनासंयम, परिष्ठापनासंयम, मनःसंयम, अभ्युत्थान, आसन, किंकर, अभ्यासकरण, अविभक्ति, वचनसंयम, कायसंयम। प्रतिरूपयोगयोजन, नियोग, पूजा यथाक्रमशः। अपरुष, १४८९. अधवा गहणे निसिरण, अणवलया, अचपल, अकुक्कुय, अदंभक, असीभरक, सहित, एसण-सेज्जा-निसेज्ज-उवधी य। समाहित, उपहित, गुणनिधि, आचारकुशल। (इनकी व्याख्या आहारे वि य सतिमं; ८३ से ८८ तक) पसत्थजोगे य झुंजणया। १४८३. अब्भुट्ठाणं गुरुमादी, आसणदाणं च होति तस्सेव। १४९०. इंदिय-कसायनिग्गह, गोसे व य आयरिए, संदिसहे किं करोमि त्ति।। पिहितासव जोग झाणमल्लीणो। १४८४. अब्भासकरणधम्मुज्जुयाण अविभत्तसीसपाडिच्छे। संजमकुसलगुणनिधी, पडिरूवजोग जह पेढियाय जुंजण करेति धुवं॥ तिविधकरण भाव सुविसुद्धो।। १४८५. पूर्य जधाणुरूवं, गुरुमादीणं करेति कमसो उ। अथवा ग्रहण, निक्षेपण, एषणा, शय्या, निषद्या, उपधि, ल्हादीजणणमफरुसं, अणवलया होतऽकुडिलत्तं॥ आहार में भी स्मृतिमान्, प्रशस्त योगों के व्यापरण- इंद्रिय १४८६. अचवलथिरस्स भावो, अप्फंदणया य होति अकुयत्तं । निग्रह, कषाय निग्रह, पिहिताश्रव, योग, ध्यान, आलीन, उल्लावलालसीभर, सहिता कालेण नाणादी॥ संयमकुशल, गुणनिधि, त्रिविधकरणभाव से विशुद्ध। (इन दोनों १४८७. सम्मं आहितभावो, समाहितो उवहितो समीवम्मि। गाथाओं की व्याख्या आगे की चार गाथाओं में।) नाणादीणं तु ठितो, गुणनिहि जो आगर गुणाणं ।। १४९१. गेण्हति पडिलेहेउं, पमज्जिउं तह य निसिरए यावि। १४८८. आयारकुसल एसो, संजमकुसलं अतो उ वोच्छामि। उवउत्तो एसणाएं, सेज्ज-निसेज्जोवहाहारे॥ पुढवादिसंजमम्मी, सत्तरसे जो भवे कुसलो।। १४९२. एतेसुं सव्वेसुं, जो ति ण पम्हुस्सते तु सो सतिमं । गुरु आदि के आने पर जो अभ्युत्थान करता है, उन्हें सृजति पसत्थमेव तु, मण-भासा-काय-जोगं तु॥ आसन देता है, प्रातःकाल ही आचार्य को निवेदन करता है- १४९३. सोतिंदियादियाणं निग्गहणं चेव तह कसायाणं। भंते! आप मुझे आदेश दें, मैं क्या करूं ? धर्म के तत्वों के प्रति पाणातिवाइयाणं, संवरणं आसवाणं च। आत्मा की निकटता का अभ्यास करता है, शिष्य और प्रतिच्छक १४९४. झाणेऽपसत्थ एयं, पसत्थझाणे य जोगमल्लीणो। का विभाग नहीं करता, जैसे पीठिका में प्रतिरूपविनयाधिकार में संजमकुसलो एसो, सुविसुद्धो तिविधकरणेणं॥ प्रतिपादित है, वैसे ही योगों का ध्रुव व्यापरण करता है, गुरु आदि जो प्रतिलेखन पूर्वक वस्तु ग्रहण करता है, प्रमार्जनपूर्वक की यथानुरूप क्रमशः पूजा करता है, अपरुष अर्थात् प्रह्लादजनक निक्षेपण करता है, जो एषणा, शय्या, निषद्या, उपधि और आहार वाणी बोलता है, अणवलया-अकुटिल होता है, अचपल अर्थात् में उपयुक्त रहता है, इन सभी संयमस्थानों को जो विस्मृत नहीं स्थिर रहता है, अकौत्कुच्य-अस्पंद रहता है, असीभरक-जो करता, सदा स्मृतिमान रहता है, जो मन, भाषा (वाणी), तथा बोलता हुआ दूसरों पर थूक नहीं उछालता, सहित-ज्ञान आदि काय के प्रशस्त योगों में प्रवृत्ति करता है, जो श्रोत्रेन्द्रिय आदि का के उचित काल से अन्वित होता है, जो स्वोचित तप आदि से निग्रहण करता है तथा जो कषायों का निग्रह करता है, जो समाहित होता है, जो उपहित अर्थात ज्ञान आदि के समीप स्थित प्राणातिपात आदि का संवरण करता है, आस्रवों का संवरण है, जो गुणनिधि अर्थात् गुणों का आकर है, वह आचारकुशल है। करता है, अप्रशस्त ध्यान का परिहार कर प्रशस्त ध्यान के योग अब मैं संयमकुशल की बात बताऊंगा। जो पृथ्वी आदि के संयम में आलीन रहता है, वह संयमकुशल है, त्रिविधकरण और भाव में कुशल होता है वह संयमकुशल होता है। से विशुद्ध है। १४८८/१. पुढवि-दग-अगणि मारुय १४९५. सुत्तत्थहेतुकारण, वागरणसमिद्धचित्तसुतधारी। वणस्स-बि-ति-चउ-पणिंदि-अज्जीवो। पोराणदुद्धरधरो, सुतरयणनिधाणमिव पुण्णो॥ पेहुप्पेह-पमज्जण, १४९६. धारिय-गुणिय समीहिय, परिठवण मणो वई काए॥ निज्जवणा विउलवायणसमिद्धो। सतरह प्रकार का संयम-पृथ्वीकायसंयम, अप्कायसंयम, पवयणकुसलगुणनिधी, अग्निकायसंयम, वायुकायसंयम, वनस्पतिकायसंयम, द्वीन्द्रिय पवयणऽहियनिग्गहसमत्थो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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