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________________ (१८) ८१९. ८२०. ८२१. ८२२,८२३. ८२४,८२५. ८२६. ८२७-८३१. ८३२. ८३३. ९२१. ८३५,८३६. ८३७-८४३. ८४४-८४६. ८४७,८४८. ८४९,८५०. ८५१. ८५२-८५६. ८५७. ८५८. ८५९. ८६०. ८६१. ८६२-८६८. ८६९. ८७०. ८७१,८७२. ८७३. ८७४,८७५. ८७६. ८७७-८८०. ८८१. ८८२-८८७. ८८८. ८८९,८९०. ८९१.९३. ८९४-९०६. देवता कृत उपसर्ग। बहुपुत्रा देवी का दृष्टान्त। ९०७. पुरुषबलि का दृष्टान्त। ९०८,९०९. देवताकृत अन्य उपद्रवों में पलायन करने का ९१०. प्रायश्चित्त। ९११,९१२. देवीकृत माया में मोहित श्रमण की प्रायश्चित्त। ९१३. अन्यान्य प्रायश्चित्तों का विधान। . राजा और योद्धाओं के दृष्टान्त का निगमन तथा ९१६,९१७. विविध प्रायश्चित्तों का विधान। ९१८,९१९. निंदा और खिंसना के लिए प्रायश्चित्त । अननुज्ञात अभिशय्या से निगमन, प्रतिषिद्ध। ९२०. पार्श्वर्थ, यथाछंद आदि पांचों के नानात्व कथन की प्रतिज्ञा। पार्श्वस्थ का स्वरूप एवं उसकी प्रायश्चित्त विधि ९२२. उत्सव के बिना अथवा उत्सव में शय्यातरपिंड ग्रहण | ९२३. का प्रायश्चित्त। रागद्वेष युक्तआचार्य की दुर्गन्धित तिल से तुलना। ९२४,९२५. प्रशस्ततिल का दृष्टान्त और उपनय। पार्श्वस्थ के विविध प्रायश्चित्तों का विधान। ९२६. परिपूर्ण प्रायश्चित्त से शुद्धि। ९२७,९२८. पार्श्वस्थ के निरुक्त तथा भेद-प्रभेद। ९२९. अभ्याहृतपिंड और नियतपिंड की व्याख्या। ९३०,९३१. पार्श्वस्थ होकर संविग्नविहार का स्वीकरण। ९३२-९३४. आलोचना के लिए तत्पर होना। ९३५. यथाछंद का स्वरूप-कथन। ९३६. उत्सूत्र एवं यथाछंद का स्वरूप। ९३७. यथाछंद का स्वरूप-कथन। अकल्पित की व्याख्या। ९३८-९४७. संभोज की व्याख्या। ९४८. यथाच्छंद की प्ररूपणा तथा उसके दोष। पार्श्वस्थ एवं यथाछंद के मान्य उत्सव । ९५०. पार्श्वस्थ तथा यथाछंद के प्रायश्चित्त । ९५१. कुशील आदि की प्रायश्चित्त विधि। ९५२. कुशील के प्रकार और प्ररूपणा। ९५३. कौतुक आदि का प्रायश्चित्त। अवसन्न की प्ररूपणा और भेद-प्रभेद। ९५४,९५५. अवसन्न का स्वरूप एवं संसक्त के प्रकार। ९५६,९५७. संक्लिष्ट एवं असंक्लिष्ट संसक्त का स्वरूप। ९५८,९५९. गण से अपक्रमण और पुनरागमन। ९६०,९६१. भिक्षुक लिंग में देशान्तरगमन विहित तथा ९६२. अन्यलिंग कब ? कैसे? निर्गमन एवं अवधावन के एकार्थक। अवधावन के कारण और वेश परित्याग कब ? लिंग-परित्याग की विधि एवं अक्षभंग का दृष्टांत। शकटाक्ष का दृष्टान्त एवं निगमन। मुद्रा एवं चोर की दृष्टान्त। सूत्र से संबंध जोड़ने वाली गाथाएं। अकृत्यस्थान सेवन का विषय। आचार्य आदि दूर होने पर आलोचना की अनिवार्यता। आचार्य, उपाध्याय आदि पांच में से किसी एक के पास आलोचना। आलोचना बिना सशल्य मरने पर सद्गति दुर्लभ । प्रवृत्ति और परिणाम समन्वय। आचार्य आदि पंचक न होने पर संघ में क्यों नहीं करना चाहिए? जहां राजा, वैद्य आदि पंचक न हों वहाँ वणिक का रहना व्यर्थ। गुणयुक्त विशाल राज्य के पांच घटक। राजा का लक्षण। युवराज का स्वरूप। महत्तर और अमात्य का लक्षण। स्त्री परवश राजा और पुरोहित का दृष्टान्त। स्त्री की वशवर्ती पुरुषों को धिक्कार। जहां स्त्रियां बलवान् उस ग्राम या नगर का विनाश। स्त्री के वशवर्ती पुरुष का हिनहिनाना और अपर्व में मडंन। गुप्तचरों के प्रकार। कुमार का स्वरूप। वैद्य का स्वरूप। धनवान् का स्वरूप। नैयतिक का स्वरूप। रूपयक्ष का स्वरूप। आचार्य, उपाध्याय आदि पंचक से हीन गण में रहने का निषेध। आचार्य का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। उपाध्याय का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। प्रवर्तक का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। स्थविर का स्वरूप। गीतार्थ का स्वरूप। ००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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