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________________ (१९) ९६३. राजा आदि पंचक से हीन राज्य की स्थिति। १०४७,१०४८. प्रायश्चित्त वहन न कर सकने वाले मुनि की चर्या। ९६४. आचार्य आदिपंचक परिहीन गण में आलोचना का | १०४९. परिहारी के अशक्त होने पर अनुपरिहारी द्वारा अभाव। वैयावृत्त्य का निर्देश। ९६५,९७१. आचार्य आदि पंचक न होने पर आलोचना एवं | १०५०. समर्थ होने पर सेवा लेने से प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त किससे? १०५१. तपःशोषित मुनि को रोग से मुक्त करने का ९७२-९७४. आहार, उपधि आदि की गवेषण। दायित्व। ९७५,९७६. प्रायश्चित्त ग्रहण करने के विविध ऐतिहासिक एवं | १०५२. ग्लान होने के कारणों का निर्देश। प्रागैतिहासिक तथ्य। १०५३. गिला की व्याख्या। ९७७. प्रायश्चित्त का वहन करते समय दूसरे प्रायश्चित्ताह | | १०५४-१०५६. परिहारी का आगमन और नि!हणा(वैयावृत्त्य) न कार्य का भी आलोचना करने का निर्देश। करने पर प्रायश्चित्त का विधान। ९७८. सम्बन्ध गाथा के माध्यमो से प्रायश्चित्त दान की १०५७. अशिव से गृही-अगृहीत के चार विकल्प। भिन्न-भिन्न विधियों का संकेत। १०५८. अशिवगृहीत मुनि का संघ में प्रवेश होने पर हानियां। ९७९. दुग, साधर्मिक एवं विहार आदि शब्दों के निक्षेप | १०५९,१०६०. अशिवगृहीत मुनि का गांव के बाहर या उपाश्रय में कथन की प्रतिज्ञा। एकान्त स्थान में रहने का विधान। ९८०-९८५. दुग शब्द के छह निक्षेप तथा उनका विस्तार। १०६१-१०६३. अशिवगृहीत मुनि के साथ व्यवहार करने की ९८६-९९४. साधर्मिक के बारह निक्षेप तथा उनका विस्तृत सावधानियां। विवरण। १०६४. व्यवहार के एकार्थक एवं लघु प्रायश्चित्त का ९९५-९९८. विहार के चार निक्षेप एवं उनका वर्णन। प्रस्थापन। ९९९-१००२. अगीतार्थ के साथ विहार का निषेध तथा गोरक्षक- | १०६५-१०७०. गुरुक, लघुक एवं लघुस्वक आदि तीन व्यवहारों दृष्टान्त। के भेद-प्रभेद। १००३. द्वारगाथा द्वारा मार्ग, शैक्ष, विहार आदि द्वारों का | १०७१,१०७२. नौवें प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि की वैयावृत्त्य करने का कथन। निषेध, परन्तु राजवेष्टि एवं कम-निर्जरा के लिए १००४-१००८. अगीतार्थ के साथ विहार करने से होने वाले करने का आदेश। आत्मसमुत्थ दोषों का विस्तृत वर्णन। १०७३. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त का स्वरूप। १००९-१०१४. भाव-विहार की परिभाषा और भेद-प्रभेद। पारांचित के प्रति आचार्य का कर्त्तव्य। १०१५. दो मुनियों के विहार करने में होने वाले दोष। १०७६. घोर प्रायश्चित्त से क्षिप्स होने वाले साधु की १०१६. ग्लान को एकाकी छोड़ने के दोष। वैयावृत्त्य। १०१७-१०२०. एकाकी ग्लान के मरने पर होने वाले दोष तथा १०७७-१०८०. क्षिप्तचित्तता के लौकिक एवं लोकोत्तरिक कारण। उनका प्रायश्चित्त। १०८१-८५. राग से क्षिप्त होने वाले जितशत्रु राजा के भाई की १०२१,१०२२. शल्यद्वार का निरूपण। कथा। १०२३,१०२४. शिष्य द्वारा सूत्र की निरर्थकता बताना और आचार्य | १०८६. तिर्यंच के भय से होने वाली क्षिप्तचित्तता। द्वारा समाधान। १०८७. अपमान से होनेवाली क्षिप्तचित्तता एवं उसकी यतना १०२५,१०२६. दो का विहार कब ? कैसे? का निर्देश। १०२७-१०३०. समान अपराध पर प्रायश्चित्त में भेद क्यों ? | १०८८-११०५. विभिन्न कारणों से होने वाली क्षिप्तचित्तता के १०३१. दो साधर्मिकों की परस्पर प्रायश्चित्त विधि। निवारण के उपाय। १०३२-१०३५. अनेक प्रायश्चित्तभाक् साधर्मिकों की आलोचना- | ११०६,११०७. परिणाम के आधार पर चारित्र के चार विकल्प। विधि और परंपरा। ११०८-१०१६. राग-द्वेष के अभाव में क्षिप्तचित्त के कर्मबंध नहीं, १०३६-१०४१. परिहारकल्पस्थित भिक्षु के प्रायश्चित्त-वहन में मृग नर्तकी का दृष्टान्त। का दृष्टान्त एवं उपनव। १११७-१०२२. क्षिप्सचित्त मुनि के स्वस्थ होने पर प्रायश्चित्त की १०४२-१०४६. योद्धा एवं वृषभ का दृष्टान्त। विधि। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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