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________________ ११२३. ११२४. ११२५. ११२६-११३१. दीप्तचित्तता व्यक्ति की स्थिति । दीप्तचित्तता और दीप्तचित्त में अन्तर । मद से दीप्तचित्तता । दीसचित्तता में शातवाहन राजा की 'दृप्तता उसका निवारण | ११३२-११३९. लोकोत्तरिक दीप्तचित्तता के कारण एवं निवारण की विस्तृत चर्चा ११४०-११४५. यक्षाविष्ट होने के कारणों में अनेक दृष्टान्तों का कथन । यक्षाविष्ट की चिकित्सा । मोह से होने वाले उन्माद की यतना एवं चिकित्सा । वायु से उत्पन्न उन्माद की चिकित्सा । आत्मसंचेतित उपसर्ग के दो कारण मोहनीय कर्म का उदय तथा पित्तोदय । ११५४. तीन प्रकार के उपसर्ग । ११५५-११६२. मनुष्य एवं तिर्यञ्चकृत उपसर्ग-निवारण के विभिन्न उपाय । ११६३-१९६५. गृहस्थ से कलह कर आये साधु का संरक्षण तथा उसके उपाय । ११६६,११६७. कलह की क्षमायाचना करने का विधान तथा प्रायश्चित्तवाहक मुनि के प्रति कर्तव्य । इत्वरिक और यावत्कथिक तप का प्रायश्चित्त । भक्तपानप्रत्याख्यानी का वैयावृत्त्य । उत्तमार्थ (संथारा) ग्रहण करने के इच्छुक दास को भी दीक्षा । ११०३.१९७४. सेवकपुरुष, अवम आदि द्वारों का कथन । ११०५-११०९, सेवकपुरुष दृष्टान्त की व्याख्या | ११८०-११९०. अभाव से दास बने पुत्र की दासत्व से मुक्ति के ११४६. ११४७-११५१. ११५२. ११५३. ११६८. ११६९-११७१. ११७२. १२०३. १२०४. उपाय। ११९१-११९७. ऋणमुक्त न बने वयक्ति की प्रव्रज्या संबंधी चर्या । ११९८ - १२०२. ऋण प्रब्रजित व्यक्ति की ऋणमुक्ति विविध १२०५. १२०६. १२०७. १२०८, १२०९. गृहीभूत क्यों ? १२१०. Jain Education International (२०) और उपाय । अनार्य एवं चोर द्वारा लूटे जाने पर साधु का कर्त्तव्य । अशिवादि होने पर परायत्त को भी दीक्षा तथा अनार्य देश में विचरण का निर्देश अनवस्थाप्य कैसे ? गृहीभूत करने की आपवादिक विधि । गृहीभूत करके उपस्थापना देने का निर्देश | गृहीभूत करने की विधि । दाक्षिणात्यों का मतभेद । १२११-१११३. १२१४,१२१५. १२१६. १२१७-१९. १२२९. १२३०,१२३१. १२३२,१२३३. १२३४. १२३७-१२३९. १२२०-१२२८. ग्लानमुनि द्वारा राजा को प्रतिबोध और देश निष्कासन की आज्ञा की निरसन । १२४०-१२४२. १२४३-१२४८. १२४९. १२५०, १२५१. १२५२, १२५३. १२५४. १२५५,१२५६. १२५७. १२५८. १२५९-१२६४. १२६५.१२७६. १२७७. १२७८. १२७९-१२८२. १२८३,१२८४. १२८५,१२८६. १२८९-१२९१. अनवस्थाप्य अथवा पारांचित प्रायश्चित्त वहन करने वाले का कल्प और उसके ग्लान होने पर आचार्य का दायित्व | For Private & Personal Use Only प्रायश्चित्त वहन करने वाला यदि नीरोग है तो उसका आचार्य के प्रति कर्त्तव्य के प्रति कर्त्तव्य और गण में आने, न आने के कारण। ग्लान के पास सुखपृच्छा के लिए जाने के विविध निर्देश | राजा द्वारा देश - निष्कासन का आदेश होने पर परिहार तप में स्थित ग्लान मुनि द्वारा अपनी अचिंत्य शक्ति का प्रयोग | अगृहीभूत की उपस्थापना । व्रतिनी द्वारा आचार्य मिथ्याभियोग | आचार्य को गृहीभूत न करने के लिए शिष्यों की धमकी | दो गणों के मध्य विवाद का समाधान । दूसरे को संयमपर्याय में लघु करने के लिए मिध्या आरोप लगाने का कारण । मिथ्या आरोप कैसे ? आचार्य द्वारा गवेषणा और यथानुरूप प्रायश्चित्त । भूतार्थ जानने के अनेक विधियों का वर्णन । अभ्याख्यानी और अभ्याख्यात व्यक्ति की :स्थिति का निरूपण । मनः मुनि वेश में अवधावन के कारणों की मीमांसा । अवधावित मुनि की शोधि के प्रकार । द्रव्यशोधि का वर्णन | प्रायश्चित्त के नानात्व का कारण । क्षेत्रविषयक शोधि । काल से होने वाली विशोधि । द्रव्य, क्षेत्र आदि के संयोग की विशुद्धि एवं विभिन्न प्रायश्चित्त । भावविशोधि की प्रक्रिया। सूक्ष्म परिनिर्वाण के दो भेद रोहिणेय का दृष्टान्त लौकिक निर्णपण लोकोत्तर निर्वापण प्रतिसेवी और अप्रतीसेवी कैसे ? महातडाग का दृष्टान्त तथा उसका निगमन । गच्छ-निर्गत मुनि पुनः गण में आने का प्रतिषेध www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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