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करता है तो उससे उपधिग्रहण की प्रक्रिया। १३५२-१३५६. पारिहारिक की सामाचारी आदि। १२९२-१२९७. प्रतिसेवना का विवाद और उसका निष्कर्ष । १३५७-१३६१. गण धारण कौन करे ? सपरिच्छद या अपरिच्छद ? १२९८. व्यक्तलिंग विषयक मुनि के प्रायश्चित्त का १३६२-१३६४. इच्छा शब्द के निक्षेप। निरूपण।
१३६५-१३६८. गण-शब्द के निक्षेप। १२९९,१३००. एक पाक्षिक मुनि के प्रकार।
१३६९-१३७१. गण-धारण का उद्देश्य-निर्जरा। गणधर को १३०१. सापेक्ष एवं निरपेक्ष राजा का दृष्टान्त।
महातडाग की उपमा। १३०२-१३०५. इत्वर, आचार्य, उपाध्याय की स्थापना विषयक १३७२. गुणयुक्त को गणधर बनाने का निर्देश। ऊहापोह।
१३७३. गणधर प्रतिबोधक आदि पांच उपमाओं से उपमित। १३०६. श्रुत से अनेकपाक्षिक इत्वर आचार्य की स्थापना १३७४. प्रतिबोधक उपमा का स्पष्टीकरण। के दोष।
१३७५. देशक उपमा की व्याख्या। १३०७-१३०९. श्रुत से अनेकपाक्षिक यावत्कथित आचार्य की । १३७६,१३७७. सपलिच्छन्न एवं अपलिच्छन्न के विविध उदाहरण स्थापना के दोष।
एवं कथाएं। स्थापित करने योग्य आचार्य के चार विकल्प।
१३७८.
बुद्धिहीन राजकुमार की कथा। १३११-१३१२. इत्वर तथा यावत्कथिक आचार्य की स्थापना के
१३७९.
भावतः अपलिच्छन्न की व्याख्या। अपवाद एवं विविध निर्देश।
१३८०. लघुस्रोत का दृष्टान्त। १३२२-१३२४. प्रथम विकल्प में स्थापित आचार्य संबंधी निर्देश। | १३८१. अगीतार्थ से गण का विनाश। १३२५. लब्धि रहित को न आचार्य पद और न उपाध्याय १३८२. जंबूक एवं सिंह की कथा। पर आदि।
१३८३,१३८४. अगीतार्थ की चेष्टाओं की नीलवर्णी सियार से १३२६. आचार्य के लक्षणों से सहित मुनियों को दिशा
तुलना एवं उपनय। दान-आचार्य पद पर स्थापन।
१३८५,१३८६. जंबूक की बुद्धिमत्ता एवं सिंह की पराजय। १३२७. आचार्य पद पर स्थापित गीतार्थ मुनियों को १३८७. द्रव्य एवं भाव से अप्रशस्त उदाहरण । उपकरण-दान।
१३८८,१३८९. द्रमक/भिखारी का दृष्टान्त एवं उसका निगमन। १३२८.
अनिर्मापित मुनि को गणधर पद देने पर स्थविरों १३९०,१३९१. ग्वाले का दृष्टान्त एवं निगमन। की प्रार्थना।
१३९२. द्रव्यतः पलिच्छन्नत्व के दोष। १३२९. उसे संघाटक देने का निर्देश।
१३९३-१३९८. लब्धिमान् होने पर भी गण-धारण में क्षम नहीं, १३३०-१३३३. स्थापित आचार्य का गण को विपरिणमित करने
क्यों ? का प्रयास और ग्वालों का दृष्टान्त।
गणधारी के गुण। १३३४-१३३६. गण द्वारा असम्मत मुनि को आचार्य बनाने पर १४००.
पूजा के निमित्त गण-धारण का निषेध। प्रायश्चित्त।
१४०१. कर्मनिर्जरण के लिए गण-धारण। १३३७.
परिहारी तथा अपरिहारी के पारस्परिक संभोज का १४०२-१४०५. पूजा के निमित्त गध-धारण की अनुज्ञा । वर्जन।
१४०६,१४०७. गण-धारण करने वाले को कितने शिष्य देय ? १३३८-१३४२. परिहार तप का काल और परिहरण विधि।
परिच्छद के भेद-प्रभेद तथा उदाहरण। १३४३-१३४६. परिहार कल्पस्थित मुनि का अशन पान लेने व
द्रव्य-भाव परिच्छद की चतुर्भंगी। देने का कल्प तथा अकल्प।
१४१४,१४१५. भरुकच्छ में वज्रभूति आचार्य की कथा। १३४७.
संसृष्ट हाथ आदि को चाटने पर प्रायश्चित्त। १४१६. द्रव्य परिच्छ का मूल है-औरस बल और आकृति। १३४८.
आचार्य आदि के आदेश पर संसृष्ट हाथ आदि १४१७-१४२०. अबहुश्रुत और गीतार्थ की चतुर्भंगी तथा प्रायश्चित्त चाटने का विधान।
कथन। १३४९. सूपकार का दृष्टान्त।
४१२१-१४२९. गणधारण के योग्य की परीक्षा-विधि। १३५०. बचे हुए भोजन से परिवेषक को देने का परिमाण। |
शिष्य का प्रश्न और गुरु द्वारा परीक्षा-विधि का १३५१. सूत्र की संबंध सूचक गाथा।
समर्थन।
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