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________________ १४३४-१४४१. १४४२. १४४३. १४४४-१४४६. १४४७-१४६४. १४६५-१४६७. १४६८. १४७७-१४७९. १४६९,१४७९. सात पुरुष युग । १४७१,७४. १४७५,१४७६. १४८०. १५२७. १५२८. १५२९. १५३०. १५३१. १५३२. राजकुमार के दृष्टान्त से गणधारण की योग्यता का कथन । गणधारण के लिए अयोग्य । अयोग्य को आचार्य पद देने से हानि। सामाचारी में शिथिलता के प्रसंग में अंगारवाहक का दृष्टान्त । गणधारण के लिए अनर्ह कौन-कौन ? देशान्तर से आगत प्रव्रजति मुनियों की चर्या । पुरुषयुग के विकल्प | Jain Education International १४८१-१४८७. १४८८-१४९४. १४९५-१४९८. प्रवचनकुशल की व्याख्या । १४९९-१५०५. प्रज्ञप्तिकुशल की व्याख्या । १५०६-१५१४. संग्रहकुशल की व्याख्या । १५१५-१५१९. उपग्रहकुशल का विवरण । १५२०,१५२१. अक्षताचार की व्याख्या । १५२२. १५२३. १५२४-१५२६. स्थविरों को पूछे बिना गण-धारण का प्रायश्चित्त । स्वगण में स्थविर न हो तो दूसरे गण के स्थविरों के पास उपसंपदा लेने का निर्देश । (२२) गणधारक उपाध्याय आदि का श्रुत परिमाण तथा अन्यान्य लब्धियां । आचारकुशल, प्रवचनकुशल आदि का निर्देश तथा आचारकुशल के भेद । आचारकुशल की व्याख्या । संयमकुशल की व्याख्या क्षताचार, सबलाचार आदि पदों की व्याख्या । आचारप्रकल्पधर कौन ? चार विकल्प | आचार्यपद योग्य के विषय में शिष्य का प्रश्न तथा पुष्करिणी आदि अनेक दृष्टान्तों से आचार्य का समाधान । पुष्करिणी का दृष्टान्त । आचारप्रकल्प का पूर्व रूप और वर्तमान रूप । प्राचीनकाल में चोर विविध विद्याओं से सम्पन्न, आज उनका अभाव । प्राचीनकाल में गीतार्थ चतुर्दशपूर्वी, आज प्रकल्पधारी । प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा से उपस्थापना, आज दशवैकालिक के चौथे अध्ययन षड्जीवनिकाय से उपस्थापना । पहले और वर्तमान में पिंड़कल्पी की मर्यादा में अन्तर । १५३३. १५३४. १५३५. १५३६. १५३७,१५३८. १५३९. १५४०,१५४१. १५४२. १५४३-१५४८. १५४९-१५५३. १५५४-१५६०. १५६१-१५६६. १५६७. १५७६. १५७७. १५६८, १५६९. श्रुतविहीन पर लक्षणयुक्त को आचार्य पद देने की विधि । १५७०-१५७५. स्वगण में गीतार्थ के अभाव में अध्ययन किसके पास? आचार्य और उपाध्याय-दो का गण में होना अनिवार्य । १५७८, १५७९. १५८८. नवक, डहरक, तरुण आदि के प्रव्रज्या पर्याय की अवस्था का निर्देश । अभिनव आचार्य और उपाध्याय के संग्रह का निर्देश | १५८०-१५८७. नए आचार्य का अभिषेक किए बिना पूर्व आचार्य के कालगत होने की सूचना देने से हानियां | गण में आचार्य और उपाध्याय के भय से आचारपालन में सतर्कता । प्रवर्त्तिनी की निश्रा में साध्वियों के आचार- पालन में तत्परता । स्त्री की परवशता और उसका संरक्षण । १५९९. पहले आचारंग से पूर्व उत्तराध्ययन का अध्ययन, अब दशवैकालिक का अध्ययन । पहले कल्पवृक्ष का अस्तित्व अब अन्यान्य वृक्षों की मान्यता । प्राचीन और अर्वाचीन गोवर्ग की संख्या में अन्तर । प्राचीन एवं अर्वाचीन मल्लों के स्वरूप में अन्तर । प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रायश्चित्त के स्वरूप में १५८९/१. अन्तर । पहले चतुर्दशपूर्वी आदि आचार्य आज युगानुरूप आचार्य । For Private & Personal Use Only त्रिवर्ष पर्यायवाला केवल उपाध्याय पद, पांच वर्ष पर्याय वाला उपाध्याय तथा आचार्य पद एवं अष्ट वर्ष पर्याय वाला सभी पद के योग्य। अपवाद सूत्र । तत्काल प्रव्रजित को आचार्य पद क्यों ? कैसे ? राजपुत्र, अमात्यपुत्र आदि की दीक्षा, उत्प्रव्रजन, पुनः दीक्षा तथा पद-प्रतिष्ठापन । तत्काल प्रव्रजित राजपुत्र आदि को आचार्य बनाने के लाभ | पूर्व पर्याय को त्याग पुनः दीक्षित होने वाले राजकुमार आदि को आचार्य पद देने के लाभ । श्रुत समृद्ध पर गुणविहीन को आचार्य पद देने का निषेध । www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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