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________________ १५९०.१५९१. स्त्री परवश क्यों ? १५९२,१५९३. मुनि की गणस्थिति के लिए आचार्य, उपाध्याय अनिवार्य साध्वी की गणस्थिति के लिए आचार्यउपाध्याय तथा प्रवर्त्तिनी की अनिवार्यता उत्सर्ग और अपवाद । १५९४,१५९५. गण से अपक्रमण कर मैथुनसेवी मुनि को तीन वर्ष तक कोई भी पद देने का निषेध | १५९६,१५९९. सापेक्ष एवं निरपेक्ष मैथुनसेवी का विस्तृत वर्णन । १६००-१५१०. मोहोदय की चिकित्सा-विधि । १६११-१५१४. आचार्य आदि पदों के लिए यावज्जीवन अनर्ह व्यक्तियों का दृष्टान्तों से विमर्श १६१५-१५२३. वेदोदय के उपशान्त न होने पर परदेशगमन तथा अन्यान्य उपाय । १६२४-१५२७. पुनः लौटने पर गुरु के समक्ष आलोचना एवं प्रायश्चित्त । प्रतिसेवी मुनि को तीन वर्ष तक वंदना न करने का विधान । १६२९-१६३३. तीन वर्ष में यदि वेदोदय उपशान्त न हो तो यावज्जीवन पद के लिए अनर्ह । महाव्रत के अतिचारों का प्रतिपादन आचार्य की स्थापना का विवेक । १६३५,१६३६. अभीक्ष्ण मायावी, मैथुनप्रतिसेवी, अवधानकारी मुनि बहुश्रुत होने पर भी आचार्यादि पद के लिए यावज्जीवन अनहै। १६२८. १६३४. (२३) १६३७-१६३९. एकत्व बहुत्व का विमर्श । १६४०. अशुचि कौन? मायावी । १६४१,१६४२. अशुचि के दो भेद । १६४३-१६४७. मायावी आदि मुनि सूरी पद के लिए अनर्ह । मायावी का अनाचार | मायावी कौन ? १६५०-१६४५. संघ में सचित आदि के विवाद होने पर उसके समाधान की विधि । १६५५-१६५९. संघ की घोषणा पर मुनि को अवश्य जाने का निर्देश और न जाने पर प्रायश्चित्त । १६६०-१६६१. सचित्त के निमित्त विवाद का समाधान | १६६२-१६६६. प्रतिपक्ष के बलवान होने पर व्यवहारछेत्ता का कर्त्तव्य | १६६७,१६६८. संघ मर्यादा की महानता एवं विभिन्नता । १६६९,७४ पद का विवाद निपटाने की प्रक्रिया। १६७५,१६७६. तीर्थंकर की आज्ञा ही प्रमाण | १६४८. १६४९. Jain Education International १६७७-१६८१. १६८२, १६८५. १६८६. १६८७. १६८८-१६९९. १६९२. १६९३. १६९४-१७०२. १७०३, १७०४. १७०५-१७०७. १७०८, १७०९. १७१०-१७१२. १७१३. १७१४. १७१५-१७१७. १७१८. १७१९-१७२५. १७२६, १७२७. १७२८. १७२९. १७३०. १७३१. १७३२. १७४८, १७४९. १७५०-१७६२. १७६३-१७६५. १७६६,१७६७. १७६८. संघ की विशेषता और उसकी सुपरीक्षित कारिता। आचार्य आदि ही नहीं किन्तु संयमाराधना संसारमुक्ति का साधन । संघ को शीतगृह की उपमा क्यों ? संघ शब्द की व्युत्पत्ति । असंघ की व्याख्या और परिणाम । संघ में रहकर कहीं भी प्रतिबद्ध न होने का निर्देश । व्यवहारछेदक के दो प्रकार । आचार्य के आठ अव्यवहारी एवं व्यवहारी शिष्यों का स्वरूप । दुर्व्यवहारी का फल | आठ व्यवहारी शिष्यों के नाम और उनके व्यवहार का सुफल । युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटी ग्रहण करने वाला व्यवहारी । व्यवहारकरण योग्य कौन ? अव्यवहारी का स्वरूप | राग-द्वेष रहित व्यवहार का निर्देश । स्वच्छंदबुद्धि का निर्णय अश्रेयस्कर और उसका प्रायश्चित्त । For Private & Personal Use Only गौरव रहित होकर व्यवहार करने का निर्देश । आठ प्रकार के गौर और उनका परिणाम । व्यवहार और अव्यवहार की इयत्ता और परिणति । गणी का स्वरूप | कालविभाग से दो या तीन साधु के विहार का १७३३. उपर्युक्त गच्छ परिमाण का सूत्रार्थ से विरोध १७३४-१७४७. दो मुनियों के विहरण के कारणों का निर्देश एवं उनकी व्याख्या | वर्षावास में वसति को शून्य न करने का निर्देश । वसति को शून्य करने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त । कल्प- अकल्प | बृहद्गच्छ से सूत्रार्थ में हानि। • पंचक और सप्तक से युक्त गच्छ तथा जघन्य और मध्यम गच्छ का परिमाण । ऋतुबद्धकाल में पंचक और वर्षाकाल में सप्तक से हीन को प्रायश्चित्त । वर्षावास में दो मुनियों का साथ कैसे ? वर्षावास के योग्य जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र । वर्षावासयोग्य उत्कृष्ट क्षेत्र के तेरह गुण । www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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