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१७६९.
१७७०,१७७१.
१७७२.
१७७३.
१७७४- १७७८.
१७७९.
१७८०.
१७८१.
१७८२.
१७८३,१७८४.
१७८५. १७८६, १७८७.
१७९८-१८००.
१८०१.
१८०२.
१८०३.
१८०४, १८०५.
१८०६.
१८००,१८०८.
१८०९.
१८१०-१८१७.
१७८८.
बालक को वसतिपाल करने के दोष ।
१७८९. आचार्य के रहने से वसति के दोषों का वर्जन। १७९०-१७९२. दो-तीन मुनियों के रहने से समीपस्थ घरों से गोचरी का विधान ।
१७६९-१७९७. एक ही क्षेत्र में आचार्य और उपाध्याय की परस्पर
निश्रा।
एकाकी और असमाप्तकल्प कैसे ? स्थविरकृत मर्यादा
सूत्रार्थ के लिए गच्छान्तर में संक्रान्त होने पर क्षेत्र किसका ?
१८१८-१८२३.
१८२४.
१८२५.
१८२६.
१८२७,१८२८.
१८२९.
१८३०.
१८३१.
अयोग्य क्षेत्र में वर्षावास बिताने से प्रायश्चित |
कीचड़युक्त प्रदेश के दोष |
प्राणियों की उत्पत्ति वाले प्रदेश के दोष
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संकड़ी वसति में रहने के दोष ।
दूध न मिलने वाले प्रदेश में रहने के दोष । जनाकुल वसति में रहने के दोष ।
वैद्य और औषद्य की अप्राप्ति वाले स्थान के दोष । निचय और अधिपति रहित स्थान के दोष । अन्यतीर्थिक बहुल क्षेत्रावास से होने वाले दोष । सुलभभिक्षा वाले क्षेत्र में स्वाध्याय, तप आदि की सुगमता ।
संग्रह, उपग्रह आदि पंचक का विवरण।
(२४)
तीन और सात पृच्छा से होने वाले क्षेत्र का आभवन । अक्षेत्र में उपाश्रय की मार्गणा कैसे ?
उपाश्रय की तीन भेद ।
उपाश्रय निर्धारण की विधि ।
प्रव्रज्या विषयक उपाश्रय की पृच्छा ।
प्रव्रज्या के इच्छुक व्यक्ति को विपरिणत करने के नौ कारणों का निर्देश
वर्षाकाल में समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प वाले मुनियों की परस्पर उपसंपदा कैसे ? सूत्रार्थ भाषण के तीन प्रकार |
सूत्र में कौन किससे बलवान् ? सूत्रार्थ में कौन किससे बलवान्?
१८५४.
उत्कृष्ट गुण वाले वर्षावासयोग्य क्षेत्र में तीन मुनियों १८५५. के रहने से होने वाले संभावित दोष
सूत्र से अर्थ की प्रधानता क्यों ? कारणों का निर्देश । सभी सूत्रों से छेद सूत्र बलीयान् कैसे ? मंडली - विधि से अध्ययन का उपक्रम । आवलिका विधि और मंडलिका विधि में कौन श्रेष्ठ ?
१८३२.
१८३३-१८३५.
१८३६-१८४३.
१८४४-१८४८.
१८४९.
१८५०,१८५१.
१८५२.
१८५३.
१८५६-१८६०. १८६१-१८६३.
१८६४,१८६५.
१८७७-१८८८.
१८९९.
१८९०,१८९१.
क्षेत्र पूर्वस्थित मुनि का या पश्चाद् आगत मुनि का । पश्चात्कृत शैक्ष के भेद एवं स्वरूप ।
गण-निर्गत मुनि संबंधी प्राचीन और अर्वाचीन विधि, भद्रबाहु द्वारा तीन वर्ष की मर्यादा
१८६६-१८७६. विविध उत्प्रव्रजित व्यक्तियों को पुनः प्रव्रज्या का विमर्श |
वागन्तिक व्यवहार का स्वरूप और विविध दृष्टान्त |
पुरुषोत्तरिक धर्म के प्रमाण का कथन ।
ऋतुबद्ध काल में आचार्य आदि की मृत्यु होने पर
निश्रा की चर्चा |
१८९२-१८९५.
१८९६,१८९७.
१८९८,१८९९.
१९००. १९०१-१९०८. १९०९.
१९१३,१९१५. १९१६,१९२१.
१९२२-१९३३.
घोटककंडूयित विधि से सूत्रार्थ का ग्रहण | समाप्तकल्प की विधि का विवरण ।
लौकिक उपसंपदा में राजा का उदाहरण । निर्वाचित राजा मूलदेव की अनुशासन विधि। लोकोसर सापेक्ष निरपेक्ष आचार्य का विवरण उपनिक्षेप के दो प्रकार ।
उपनिक्षेप में श्रेष्ठी सुता का लौकिक दृष्टान्त परगण की निश्रा में साधुओं का उपनिक्षेप कब कैसे ? १९१०-१९१२. साधुओं की परीक्षानिमित्त धन्य सेठ की चार पुत्रवधूओं वकज्ञा दृष्टान्त एवं निगमन । आचार्य गण का भार किसको दे ?
उपसंपदा के लिए अनर्ह होने पर निर्गमन और गमन के चार विकल्प |
१९३४,१९३५,
प्रव्रज्या के लिए आए शैक्ष एवं विभिन्न मुनियों से वार्तालाप |
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प्रव्रजित होने के बाद शैक्ष किसकी निश्रा में रहे? शैक्ष के दो प्रकार - साधारण और पश्चात् कृत । ऋतुबद्धकाल में गणावच्छेदक के साथ एक ही साधु हो तो उससे होने वाले दोष एवं प्रायश्चित्त विधि | चार कानों तक ही रहस्य संभव ।
गणावच्छेदक को दो साधुओं के साथ रहने का निर्देश |
गीतार्थ एवं सूत्र की निश्रा ।
घोटककंड्रयन की तरह सूत्रार्थ का ग्रहण
अन्य मुनियों के साथ रहने से पूर्व ज्ञानादि की हानि-वृद्धि की परीक्षा विधि
उपसंपन्न गच्छाधिपति के अचानक कालगत होने पर कर्त्तव्य - निदर्शन ।
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