SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा उद्देशक १५३ है। उनके पास पढ़ते हुए वह मुनि आहार, उपधि, शय्या आदि जो मध्यम अथवा स्थविर त्रिवर्षपर्यायोत्तीर्ण होने पर भी गीतार्थ हैं की एषणा आदि में यतनावान् रहे। वह अनुमोदन, करण- तो वे नियमतः अभिनव स्थापित आचार्य के शिष्य होते हैं और कारापण के दोष से लिप्त नहीं होता। 'मैं इसके पास शिक्षा ग्रहण जो गीतार्थ मध्यम अथवा स्थविर हैं, वे पूर्वाचार्य के शिष्य होते करता हूं'--यह द्वितीय पद-अपवाद स्वरूप है। अतः वह शुद्ध है। हैं। १५७४. चोदति से परिवारं अकरेमाणं भणाति वा सड्ढे। १५८०. नवडहरगतरुणगस्स,विधीय वीसुभियम्मि आयरिए। सव्वोच्छित्तिकरस्स हु, सुतभत्तीए कुणह पूयं ।।, पच्छन्ने अभिसेओ, नियमा पुण संगहट्ठाए। वह उसके परिवार, जो विनय आदि नहीं करता, को आचार्य के कालगत हो जाने पर (उसका प्रकाशन न करते प्रज्ञापित करता है अथवा किसी श्रावक को कहता है कि श्रुतभक्ति हुए) नये शिष्यों अथवा छोटे अथवा तरुण शिष्यों के संग्रहण के से प्रेरित होकर तुम अव्यवच्छित्ति करने वाले इस अध्ययनरत लिए विधिपूर्वक निश्चितरूप से प्रच्छन्न प्रदेश में अन्य गणधर मुनि की पूजा करो। (आचार्य) का अभिषेक करना चाहिए। १५७५. दुविधाऽसतीय तेसिं, आहारादी करेति से सव्वं । १५८१. आयरिए कालगते, न पगासेज्जऽट्ठविते गणहरम्मि। पणहाणीय जतंतो, अत्तट्ठाए वि एमेव ।। रणो व्व अणभिसित्ते, रज्जे खोभो तथा गच्छे।। दोनों प्रतिपरिवारक के अभाव में वह स्वयं आहार आदि की विधि यह है-दूसरे आचार्य की स्थापना किए बिना पूर्व व्यवस्था करे। वह उनके आहार आदि के लिए पंचक परिहानि से आचार्य के कालगत हो जाने की बात को प्रकाशित नहीं करनी यतना करता है तथा स्वयं के लिए भी उसी प्रकार यतना करता चाहिए। राजा कालगत हो जाने पर तब तक यह बात प्रकाशित नहीं की जाती जब तक अन्य राजा अभिषिक्त नहीं हो जाता। १५७६. आयरियाणं सीसो, परियाओ वा वि अधिकितो उस। क्योंकि नए राजा का अभिषेक न होने पर राज्य-क्षोभ हो सकता सीसाण केरिसाण व, ठाविज्जति सो तु आयरिओ।। है। वैसे ही गच्छ में भी क्षोभ हो सकता है। पूर्वसूत्र में आचार्य-स्थापनीय की बात कही गई थी। ऐसे १५८२.अणाधोऽधावण सच्छंद,खित्त-तेणे सपक्खपरपक्खे। आचार्य के शिष्य होते हैं। पूर्वसूत्र में पर्याय अधिकृत था। प्रस्तुत लतकंपणा य तरुणोऽसारण माणावमाणे य॥ सूत्र में भी यही पर्याय अधिकृत है। कैसे शिष्य को आचार्य पद गच्छक्षोभ जैसे-आचार्य को कालगत सुनकर कुछ मुनि पर स्थापित किया जाए-यह इस सूत्र में प्रतिपादित है। अपने को अनाथ समझकर गच्छ से अवधावन कर लेते हैं, कुछ १५७७. तेवरिसो होति नवो, आसोलसगं तु डहरगं बेंति। मुनि स्वच्छंद हो जाते हैं, कुछ क्षिप्तचित्त हो जाते हैं, स्वपक्ष तरुणो चत्ता सत्तरुण, मज्झिमो थेरओ सेसो॥ और परपक्ष के चोर जागृत हो जाते है। मुनि लता की भांति तीन वर्ष के मुनि-पर्याय वाला श्रमण 'नव', जन्म- पर्याय के चौथे वर्ष से पंद्रह वर्ष की संपूर्ति तक 'डहरक', जन्म के कांपने लग जाते हैं। तरुण मुनि आचार्य की पिपासा से अन्यत्र सोलहवें वर्ष से चालीस वर्ष की अवस्था तक 'तरुण', चले जाते हैं। संयमयोगों में शिथिल मुनियों की असारणा होती इकचालीसवें वर्ष से उनहत्तर वर्ष की उम्र तक 'मध्यम' तथा है। कुछ स्थविर मान-अपमान का चिंतन करते हैं। सत्तर वर्ष की उम्र से आगे तक 'स्थविर' कहलाता है। १५८३. जायामो अणाहो त्ति, अण्णहि गच्छंति केई ओधावे। १५७८. अणवस्स वि डहरगतरुणगस्स नियमेण संगहं बेंति। सच्छंदा व भमंती, केई खित्ता व होज्जाही।। ___ एमेव तरुणमज्झे, थेरम्मि य संगहो नवए। हम अनाथ हो गए' यह सोचकर कुछ मुनि दूसरे गच्छ में अनवक (प्रव्रज्यापर्याय से त्रिवर्षोत्तीर्ण), डहरक और चले जाते हैं और कुछ अवधावन-संयम से च्युत हो जाते हैं, तरुण-ये सभी नियमतः अभिनव स्थापित आचार्य और कुछ मुनि स्वच्छंद होकर घूमने लग जाते हैं, कुछ क्षिप्तचित्त हो उपाध्याय के संग्रह कहे जाते हैं। इसी प्रकार नवक, डहरक, तरुण, मध्यम तथा स्थविर भी नियमतः अभिनव स्थापित १५८४. पासत्थ-गिहत्थादी, उन्निक्खावेज्ज खुड्डगादी उ। आचार्य और उपाध्याय के संग्रह माने जाते हैं। लता व कंपमाणा उ, केई तरुणा उ अच्छंति ।। १५७९. वा खलु मज्झिमथेरे, गीतमगीते य होति नायव्वं । स्वपक्ष में पार्श्वस्थ आदि, परपक्ष में गृहस्थ आदि क्षुल्लक उद्दिसणा उ अगीते, पुव्वायरिए उ गीतत्थे॥ आदि को संयमच्युत कर गण से निकलने के लिए बाध्य कर देते अनवक, मध्यम और स्थविर-ये सभी दोनों प्रकार के होते हैं। कुछ तरुण मुनि परीषहों से लता की भांति कंपित होते हुए हैं-गीतार्थ और अगीतार्थ। अगीतार्थ की उद्देशना होती है अर्थात गच्छ में रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org जाते हैं।
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy