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________________ दसवां उद्देशक ४१३५. सो सत्तरसो पुढवादियाण घट्ट परिताव उद्दवणं । परिहरियव्वं नियमा, संजमगो एस बोधव्वो ॥ विस्तार से संयम के सतरह प्रकार हैं। संक्षेपतः पृथ्वी आदि छह कायों का घट्टन, परितापन तथा उद्रवण का नियमतः परिहार करना संयम जानना चाहिए। ४१३६. पक्खियपोसहिएसुं, कारयति तवं सयं करोती य । भिक्खायरियाय तधा, निजुंजति परं सयं वावि ॥ ४१३७. सव्वम्मि बारसविहे, निउंजति परं सयं च उज्जुत्तो । गणसामायारीए गणं विसीयंत चोदेति ॥ ४१३८. पडिलेहण पप्फोडण, बाल- गिलाणादि वेयवच्चेय । सीदंतं गाहेती, सयं च उज्जुत्त एतेसुं ॥ जो पाक्षिक तथा पौषधिक दिनों में तपस्या करवाता है तथा स्वयं तप करता है, भिक्षाचर्या में दूसरों को नियोजित करता है तथा स्वयं भी प्रयोजनवश भिक्षाचर्या में जाता है तथा तपस्या के सभी बारह प्रकारों में दूसरों की भांति स्वयं को भी नियोजित करता है- यह तपःसमाचारी है। गण सामाचारी यह है कि विषादग्रस्त गण को प्रेरणा देता है। प्रत्युपेक्षण, प्रस्फोटन आदि में तथा बाल और ग्लान के वैयावृत्त्य में विषादग्रस्त मुनियों की ये सारी क्रियाएं दूसरे मुनियों से करवाता है तथा स्वयं इन स्थानों में सदा उद्युत रहता है। यह गणसामाचारी है। ४१३९. एगल्लविहारादी, पडिमा पडिवज्जती सयऽण्णं वा । पडिवज्जावे एवं, अप्पाण परं च विणएति ॥ एकलविहार आदि प्रतिमा को स्वयं स्वीकार करता है तथा दूसरों को भी स्वीकार करवाता है। इसी प्रकार आचारविनय का स्वयं और पर को ग्रहण करवाता है। यह आचारविनय है। ४१४०. सुतं अत्यं च तहा, हित- निस्सेसं तधा पवाएति । एसो चउव्विधो खलु, सुतविणयो होति नातव्वो । सूत्र और अर्थ की वाचना देना, जिसके लिए जो उचित है उसको वह वाचना देना तथा निःशेषश्रुत की वाचना देना - यह चार प्रकार का श्रुतविनय है, ऐसा जानना चाहिए। ४१४१. सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो, अत्थं च सुणावए पयत्तेणं । जं जस्स होति जोग्गं, परिणामगमादिणं तु हियं ॥ ४१४२. निस्सेसमपरिसेसं, जाव समत्तं तु ताव वाएति । एसो सुतविणओ खलु, वोच्छं विक्खेवणाविणयं ॥ स्वयं उद्युक्त होकर शिष्य को सूत्र ग्रहण करवाता है यह सूत्रग्राहणविनय है तथा प्रयत्नपूर्वक शिष्य को अर्थ सुनाता है, यह अर्थश्रावणविनय है। परिणामक आदि शिष्यों के जिसके लिए जो योग्य होता है, हित होता है उसको वह देता है, यह है हितप्रदानविनय । जो निःशेष अर्थात् अपरिशेष जब तक समाप्त होता है तब तक सूत्र और अर्थ की वाचना देता है, वह है निःशेष Jain Education International ३६९ वाचनाविनय । यह चार प्रकार का श्रुतविनय है। आगे विक्षेपणाविनय के विषय में कहूंगा। ४१४३. अट्टिं दिट्ठ खलु, दिट्ठ साहम्मियत्तविणएणं । चुतधम्म ठावे धम्मे, तस्सेव हितट्ठमब्भुट्टे ॥ विक्षेपणाविनय के चार प्रकार हैं १. अदृष्टधर्मा व्यक्ति को दृष्ट की भांति धर्म ग्रहण करवाना। २. दृष्टधर्मा श्रावक को साधर्मिकत्वविनय से प्रव्रजित करना । ३. च्युतधर्मा को पुनः धर्म में स्थापित करना । ४. उसी के चारित्रधर्म की वृद्धि के लिए प्रयत्न करना । ४१४४. विण्णाणाभावम्मी, खिव पेरण विक्खिवित्तु परसमया । ससमयं तेणऽभिछुभे, अदिट्ठधम्मं तु दिट्टं वा ॥ 'वि' शब्द नानाभाव के अर्थ में प्रयुक्त है तथा क्षिप् प्रेरणे धातु है उससे विक्षेपणा बनता है । अदृष्टधर्मा अथवा दृष्टधर्मा को परसमय से विनिक्षिप्त कर स्वसमयांत अर्थात् स्वसमय के अभिमुख कर देना यह प्रथम भेद की व्याख्या है। ४१४५. धम्मसभावो सम्मद्दंसणयं जेण पुव्वि न तु लब्द्धं । सो होतऽदिट्ठपुव्वो, तं गाहिति पुव्वदिट्ठम्मि || धर्मस्वभाव का अर्थ है-दर्शन । दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन को जिसने पहले प्राप्त नहीं किया है वह होता है अदृष्टपूर्वधर्मा। उसको पूर्वदृष्ट की भांति धर्म ग्रहण करवाना। ४१४६. जह भारं व पियरं, मिच्छादिट्ठि पि गाहि सम्मत्तं । दिप्पुव्वो सावग, साधम्मि करेति पव्वावे ॥ जैसे मिथ्यादृष्टि माता-पिता तथा भाई को सम्यक्त्व प्राप्त कराना - यह अदृष्ट को दृष्ट की भांति धर्म प्राप्त कराना है। जो दृष्टपूर्वधर्मा है, उस श्रावक को साधर्मिकत्व विनय से साधर्मिक करता है अर्थात् प्रव्रजित करता है। ४१४७. चुयधम्म-भट्ठधम्मो, चरित्तधम्माउ दंसणातो वा । तं ठावेति तहिं चिय, पुणो वि धम्मे जहुद्दिट्ठे ॥ जो चारित्र धर्म से अथवा दर्शनधर्म से च्युतधर्मा हो गया है, उसको पुनः यथोद्दिष्ट धर्म में अर्थात् चारित्र धर्म में अथवा दर्शन धर्म में स्थापित करता है। ४१४८ तस्स ती तस्सेव उ, चरित्तधम्मस्स वुद्धिहेतुं तु । वारेयऽणेसणादी, न य गेण्ह सयं हितट्ठाए ॥ उसी के चारित्रधर्म की वृद्धि के लिए अनेषणा आदि का वारण किया जाता है। स्वयं भी हित के लिए अनेषणा आदि ग्रहण न करे। ४१४९. जं इह-परलोगे या, हितं सुहं तं खमं मुणेयव्वं । निस्सेयस मोक्खाय उ, अणुगामऽणुगच्छते जं तु ॥ जो इहलोक में हितकारी है वह हित है, जो परलोक में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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