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________________ २३६ सानुवाद व्यवहारभाष्य २५११. संतासंतसतीए, अह अण्णगणा बितिज्जगा णीया। मैं स्वजनों को धर्मोपदेश दूंगा, उनको श्रावक धर्म ग्रहण तत्थ इमा मग्गणा उ, आभव्वे होति नायव्वा॥ कराऊंगा, प्रव्रजित करूंगा, दानश्रद्धा के जो कुल हैं उनको सद्भाव अथवा असद्भाव से अन्य गण के दूसरे साधुओं भिक्षुक आदि व्युद्ग्राहित न कर दें-इन कारणों से वह ज्ञातविधि को भी साथ में लिया गया है तो आभाव्य विषयक यह मार्गणा में जाता है। होती है। २५१९. अतिसेसित दव्वट्ठा, नायविधिं वयति बहुसुतो संतो। २५१२. जं सो उवसामेती, तन्निस्साए य आगता जे उ। णेगा य अतिसया बहुसुतस्स एसो उ पस्सेसो॥ ते सव्वे आयरिओ, लभते पव्वावगो तस्स। ग्लान के प्रायोग्य अतिशय द्रव्यों (शतपाक आदि तैल) के ज्ञातविधि में आया हुआ मुनि जिसको उपशम भाव में ले लिए बहुश्रुत मुनि ज्ञातविधि में जाता है। यह पूर्वसूत्र में जाता है अर्थात् प्रव्रज्यापरिणाम उत्पादित करता है, तथा जो मुनि प्रतिपादित है। प्रस्तुत सूत्र के बहुश्रुत के अनेक अतिशयों का उसकी निश्रा में आए हैं उन सबका जो लाभ है वह सारा ग्लान उल्लेख है-यही पूर्वसूत्र से इसका प्रश्लेष-संबंध है। मुनि के प्रव्राजक आचार्य का होता है। २५२०. अण्णो वि अत्थि जोगो, असाधुदिट्ठीहि हीरमाणाणं। २५१३. जे पुण अधभावेणं, धम्मकही सुंदरो त्ति वा सोउं। वायादतिसयजुत्ता, तहियं गंतुं नियत्तेति॥ उवसामिया य तेहिं, तेसिं चिय ते हवंती उ॥ पूर्वसूत्र के साथ प्रस्तुत का यह अन्य योग-संबंध भी है। जो व्यक्ति स्वभावतः अथवा ये सुंदर प्रवचन करते हैं, ऐसा जो स्वजन असाधुदृष्टियों-परतीर्थिक दृष्टियों से आहत हो रहे हों सोचकर धर्मकथा सुनने के लिए आते हैं वे धर्मकथा से उपशांत तो वादविद्या में अतिशय निपुण मुनि ज्ञातविधि में जाकर उनको होकर प्रव्रज्या लेने के लिए तत्पर हो जाते हैं तो वे उस धर्मकथी कुदृष्टियों से निवर्तित करते हैं। के आभाव्य होते हैं। २५२१. पुणरवि भण्णति जोगो,नायविधिं गंतु पडिनियत्तस्स। २५१४. अण्णेहि कारणेहि व, गच्छंताणं तु जतण एसेव। वसहिं विसतो सुत्तं, संसाहितुमागते वावि।। ववहारो सेहस्स य, ताई च इमाइ कज्जाई॥ पुनः सूत्र का योग संबंध बताया जाता है। ज्ञातविधि में अन्य कारणों से ज्ञातविधि में जाने वालों के लिए यह जाकर परतीर्थिक अथवा वादी को जीतकर जो वसति में प्रवेश पूर्वोक्त यतना है। शैक्ष के लिए यही आभवन व्यवहार है। वे अन्य करता है-उससे संबंधित है प्रस्तुत सूत्र। कार्य-कारण ये हैं २५२२. बहि-अंतविवच्चासो, पणगं सागारि चिट्ठति मुहत्तं । २५१५. तवसोसिय अप्पायण, ओमेव असंथरेंत गच्छेज्जा। बितियपदं विच्छिण्णे, निरुद्धवसहीय जतणाए। रमणिज्जं वा खेत्तं, तिकालजोग्गं तु गच्छस्स॥ बहिः अंतः इनमें विपर्यास, पांच रात्रिदिन प्रायश्चित्त, २५१६. वासे निच्चिक्खिल्लं, सीयलदव पउरमेव गिम्हासु। गृहस्थ बाहर है, द्वितीयपद-अपवाद पद, विस्तृत वसति, सिसिरे य घणणिवाया, वसधी तह घट्ठमट्ठा य॥ निरुद्धवसति में यतनापूर्वक। (यह द्वार गाथा है। वर्णन आगे की २५१७. छिन्नमडंबं च तगं, सपक्खपरपक्खविरहितोमाणं। गाथाओं में) पत्तेय उग्गहं ति य, काऊणं तत्थ गच्छेज्जा॥ २५२३. बाहिं अपमज्जंते, पणगं गणिणो उ सेसए मासो। तपः शोषित शरीरवाला मुनि अपने निर्वाह के लिए अथवा अप्पडिलेहदुपेहा, पुव्वुत्ता सत्तभंगा उ ॥ दुर्भिक्ष में वहां न रह सकने के कारण, गच्छ के लिए क्षेत्र रमणीय आचार्य वसति के बाहर ही पैरो का प्रमार्जन करे। यदि न है, त्रिकालयोग्य है-वर्षाकाल में वहां चिक्खल्ल नहीं होता, करे तो आचार्य को पांच दिन-रात का प्रायश्चित्त तथा शेष साधु ग्रीष्मऋतु में शीतल द्रव्य की प्रचुरता है, शिशिर ऋतु में अत्यंत यदि ऐसा नहीं करते हैं तो उनको एक लघुमास का प्रायश्चित्त निवात वसति प्राप्त होती है, वह भी घृष्ट-मृष्ट भलीभांति लीपि- आता है। अप्रमार्जन तथा दुःप्रेक्षा से संबंधित पूर्वोक्त पुति हुई होती है। अन्य क्षेत्र में जहां जाना है वह छिन्न- मंडप (कल्पाध्ययनोक्त) सातभंग होते हैं। अर्थात् स्वजनवाला है, वह स्वपक्ष-परपक्ष द्वारा किए जाने वाले २५२४. बहि-अंतविवच्चासो, पणगं सागारिए असंतम्मि। अपमान से विरहित है, वह क्षेत्र बाल, ग्लान आदि प्रत्येक के लिए सागारियम्मि उ चले, अच्छंति मुहुत्तगं थेरा।। उपष्टम्भ होता है-इन कारणों से वह श्रमण ज्ञातविधि में जाता है। सागारिक के अभाव में यदि प्रमार्जन विधि का विपर्यास २५१८. उवदेसं काहामि य, धम्मं गाहिस्स पव्वयावेस्सं। होता है, बहिः की जाने वाली प्रमार्जना यदि अंतः में की जाती है सड्ढाणि व वुग्गाहे, भिक्खुगमादी ततो गच्छे॥ तो आचार्य को पांच दिन-रात का प्रायश्चित्त आता है। यदि १. सद्भावो नाम सन्तिसाधवः, परं न धर्मकथादिषु कुशलाः । असद्भावो मूलत एव न सन्तिसाधवः। (वृत्ति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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