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________________ पहला उद्देशक ७३ प्रायश्चित्तों से वह टूट जाता है, उसका परिणाम नष्ट हो जाता है। इतर अर्थात् आचार्य भी यदि प्रतिसेवना करने वालों की ६६०. तं दिज्जउ पच्छित्तं, जं तरती सा य कीरती मेरा। उपेक्षा करते हैं, जो प्रायश्चित्त का वहन नहीं करने वालों की जा तीरति परिहरिलं, मोसादि अपच्चओ इहरा॥ ताड़ना-प्रताड़ना नहीं करते, वे आचार्य पद के विपरीत फल इसलिए उतना प्रायश्चित्त दें जितना वह वहन कर सके संसाररूपी हस्तिहस्त अर्थात् दुस्तर संसार को प्राप्त होते हैं। तथा मर्यादा ऐसी करें जिसका वह पालन कर सके। प्रभूत ६६६. आलोयणालोयण, गुणा य दोसा य वणिया एते। प्रायश्चित्त देने पर गुरु और शिष्य दोनों को मृषादोष लगता है अयमन्नो दिलुतो, सोहिमदेंते य देंते य॥ तथा शिष्य में अप्रत्यय भी उत्पन्न होता है। आलोचना के गुण और अनालोचना के दोषों का वर्णन ६६१. जो जत्तिएण सुज्झति, अवराधो तस्स तत्तियं देति। किया गया है। जो शोधि-प्रायश्चित्त नहीं देते अथवा देते हैं, पुव्वामियं परिकहितं, घड-पडादिएहि नाएहि॥ उनसे संबंधित यह दूसरा दृष्टांत है। शिष्य के इस आक्षेप पर आचार्य कहते हैं-शिष्य ! जो ६६७. निज्जूहादि पलोयण, अवारण पसंग अग्गदारादी। अपराध जितने प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है, उतनी मात्रा में ही धुत्तपलायण निवकहण दंडणं अन्नठवणं च॥ प्रायश्चित्त दिया जाता है। घट, पट आदि दृष्टांतों से यह तथ्य राजा की कन्याएं गवाक्ष आदि स्थानों से अवलोकन करती पहले ही बताया जा चुका है। थीं। कन्यान्तःपुरपालक उनका वारण नहीं करता था। वे कन्याएं ६६२. कंटगमादिपविढे, नोद्धरति सयं न भोइए कहति। अग्रद्वार आदि स्थानों पर स्वेच्छा से घूमती थीं। एक बार किसी कमढीभूत वणगते, आगलणं खोभिता मरणं॥ धूर्त व्यक्ति के साथ पलायन कर गईं। राजा को वृत्तांत बताया एक व्याध जंगल में गया। पैर कांटों आदि से वींध गये।न गया। राजा ने उस अंतःपुरपालक को दंडित किया और दूसरे उसने स्वयं काटें निकाले और न घर जाकर पत्नी से कहा। दूसरे कन्यांतःपुरपालक को वहां रखा। दिन उन्हीं पैरों वन में गया। एक हाथी पीछे दौड़ा। व्याध ६६८. निज्जूहगतं द8, बितिओ अन्नो उ वाहरित्ताणं। कमठीभूत (स्तब्ध, जड़ीभूत) हो गया। हाथी को निकट आया विणय करेति तीसे, सेसभयं घूयणा रण्णा।। जानकर वह क्षुब्ध हो गया। वह विकल होकर नीचे गिर पड़ा। अन्य दूसरे कन्यान्तःपुरपालक ने एक बार एक राजकन्या हाथी द्वारा कुचले जाने पर वह मर गया। को गवाक्ष में देखा, उसे बुलाकर विनय-उपालंभ देते हुए शिक्षा ६६३. बितिओ सयमुद्धरती, अणुद्धिए भोइयाय णीहरति।। दी। यह देखकर शेष सभी कन्याओं के मन में भय उत्पन्न हो परिमद्दण दंतमलादि पूरण धाडण पलातो व्व॥ गया। राजा ने उस अंतःपुरपालक की पूजा अर्थात् सत्कार दूसरा व्याध जंगल में गया। उसके पैर कांटों से बींध गये।। सम्मान किया। इस दृष्टांत का यह उपनय हैउसने स्वयं उन काटों को निकाला। जिनको वह निकाल नहीं ६६९. राया इव तित्थयरा, महत्तर गुरू तु साधु कन्नाओ। सका, अपनी पत्नी से कहकर निकलवाए। फिर कांटों के ओलोयण अवराहा, अपसत्थपसत्थगोवणओ।। वेधस्थानों का अंगूठे से मर्दन किया, दांतों ओर कानों के मल से राजास्थानीय तीर्थंकर, महत्तर (कन्यान्तःपुरपालक) उन वेधस्थानों को भरा। पैर ठीक हो गये। दूसरी बार वन में स्थानीय गुरु, कन्या स्थानीय साधु, अवलोकन स्थानीय गया। हाथी के द्वारा देखे जाने पर भी-पीछा करने पर भी वह अपराध। यहां अप्रशस्त तथा प्रशस्त कन्यातःपुरपालक दोनों पलायन कर घर पहुंच गया। से उपनय करना चहिए।' ६६४. वाहत्थाणी साधू, वाहि गुरू कंटकादि अवराधा। ६७०. असज्झाइए असंते, ठाणासति पाहुणागमे चेव। सोही य ओसधाइं, पसत्थनातेणुवणओ उ॥ अन्नत्थ न गंतव्वं, गमणे गुरुगा तु पुव्वुत्ता। व्याधस्थानीय साधु, व्याधी (व्याध की पत्नी) स्थानीय अस्वाध्यायिक न होने पर, प्राघूर्णक साधुओं के आगमन गुरु, कंटकादि स्थानीय अपराध, औषधि (दंतमल आदि)। से वसति में स्थान का अभाव होने पर भी अन्यत्र अर्थात् स्थानीय शोधि। व्याध संबंधी दो दृष्टांतों में से प्रशस्त व्याध- अभिशय्या आदि में न जाए। वहां जाने पर पूर्वोक्त चार गुरुमास दृष्टांत से उपनय करना चाहिए। का प्रायश्चित्त आता है। ६६५. पडिसविते उवेक्खति, न य णं उव्वीलते अकुव्वंतं। ६७१. वत्थव्वा वारंवारएण, जग्गंतु मा य वच्चंतु। संसारहत्थिहत्थं, पावति विवरीतमितरो उ॥ एमेव य पाहुणए, जग्गण गाढं अणुव्वाए। १. जो आचर्य प्रमादी शिष्यों का वारण नहीं करता, प्रायश्चित्त नहीं देता, वह नष्ट हो जाता है, प्रथम कन्यांतःपुरपालक की भांति। जो प्रमादी शिष्यों को प्रमाद से निवारण करता है, अपराध के योग्य प्रायश्चित्त देता है वह पूजित होता है, दूसरे कन्यांतःपुरपालक की भांति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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