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________________ १५६ स्वलिंग से अन्य लिंगी अर्थात् देवी- राजा की अग्रमहिषी के साथ अथवा कुलकन्यका के साथ मैथुन सेवन करता है तो चरम प्रायश्चित्त अर्थात् पारांचित प्रायश्चित्त आता है। १६०६. नवमं तु अमच्चीए, विधवीय कुलच्चियाय मूलं तु ॥ परलिंगे य सलिंगे, सेवंते होति भयणा उ ॥ अमात्य स्त्री के साथ मैथुन सेवन करने से नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। विधवा तथा कुलवधू के साथ मैथुन सेवन करने से मूल प्रायश्चित्त तथा परलिंग से स्वलिंगी साथ मैथुन सेवन करने में भजना है। १६०७. सदेससिस्सिणीए, सज्झती कुलच्चियाए चरमं तु । नवमं गणच्चियाए, य संघच्चियाए मूलं तू ॥ समान देशोद्भव तथा शिष्यिणी, भगिनी तथा समानकुलवर्तिनी के साथ मैथुन सेवन करने से चरम प्रायश्चित्तपारांचित प्रायश्चित्त, समानगणवर्तिनी के साथ मैथुन सेवन करने से नौंवा अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त तथा समान संघवर्तिनी के साथ मैथुन सेवन करने से मूल प्रायश्चित्त आता है (यह तीसरे भंग वाले के संदर्भ की भजना है।) १६०८. परलिंगेण परम्मि उ, मूलं अहवा वि होति भयणा उ । एतेसिं भंगाणं, जतणं वोच्छामि सेवाए || परलिंग से परलिंगी के साथ मैथुन सेवन करने से मूल प्रायश्चित्त आता है अथवा इन भंगों में भजना होती है। इन भंगों में जिस भंग में सेवन करने का निर्देश है, उस सेवन की यतना कहूंगा। १६०९. तत्थ तिमिच्छाय विही, निव्वितीयमादियं अतिक्कंते । उवभुत्तरसहितो, अवणादी तो पच्छा ॥ वेदोदीर्ण मुनि की उस चिकित्सा विधि में निर्विकृतिक आदि अतिक्रांत होने पर उसके पश्चात् उपभुक्तभोगी स्थविरों के साथ अस्थानादि में वह रहता है। १६१०. अट्ठाण सद्द हत्थे, अच्चित्ततिरिक्ख भंगदोच्चेणं । एग-दु-तिणि वारा, सुद्धस्स उवट्ठिते गुरुगा ।। अस्थान - वेश्यापाटक में जहां परिचारणा के शब्द सुनाई देते हैं, अथवा हस्तकर्म के द्वारा, अथवा अचित्त तिर्यक्योनि में एक, दो, तीन बार मैथुनकर्म करके अथवा द्वितीय भंग - स्वलिंग से अन्यलिंगी के साथ एक, दो, तीन बार मैथुनकर्म का सेवन कर उपशांत वेद होकर पुनः मैथुनकर्म न करने के लिए अभ्युत्थित शिष्य के चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है । १६११. एमेव गणायरिए निक्खिवणा नवरि तत्थ नाणत्तं । अयपालग सिरिघरिए, जावज्जीवं अणरिहा उ ॥ इसी प्रकार गणावच्छेदक तथा आचार्य - उपाध्याय के १. देखें- व्यवहारभाष्य कथानक परिशिष्ट नं. ८ । Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य अनिक्षेपणा संबंधी सूत्रों में नानात्व है। अजापालक तथा श्रीगृहिक दृष्टांत के अनुसार गणावच्छेदक, आचार्य तथा उपाध्याय -ये यावज्जीवन आचार्य आदि के पद के अनर्ह होते हैं। १६१२. अइयातो रक्खंतो, अयवालो दट्टु तित्थजत्ती उ । कहिं वच्चह तित्थाणि, बेति अहगं पि वच्चामि ॥ १६१३. छड्डेऊण गतम्मी, सावज्जादीहि खइत हित नट्ठा । पच्चागतो व दिज्जति, न लभति य भतिं न वि अयाओ ।। एक अजापालक बकरियों की रक्षा करता था। एक दिन उसने तीर्थयात्रियों को देखा। उसने उनको पूछा- कहां जा रहे हो ? उन्होंने कहा- हम तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं। उसने कहा- मैं भी चलता हूं। वह बकरियों को छोड़कर उनके साथ चला गया। उसके चले जाने पर कुछ बकरियों को हिंस्र पशुओं ने खा लिया, कुछ को चोर उठा ले गए और कुछ वहां से भाग गईं। वह तीर्थयात्रा से लौटा। उससे बकरियों का मूल्य लिया गया, उसे भृति नहीं मिली और पुनः बकरियों की रक्षा का भार नहीं दिया। १६१४. एवं सिरिघरिए वी, एवं तु गणादिणो अणिक्खित्ते । जावज्जीवं न लभति, तप्पत्तीयं गणं सो उ ॥ इसी प्रकार श्रीगृहीक भी। इसी प्रकार गण आदि का अनिक्षेपण किए बिना मैथुन समाचरण प्रत्यय से उसे यावज्जीवन तक गण का उत्तरदायित्व नहीं मिलता। ( वह गणावच्छेदिकत्व, आचार्यत्व, उपाध्यायत्व को प्राप्त नहीं होता ।) १६१५. जा तिन्नि अठायंते, सावेक्खो वच्चते उ परदेसं । तं चेव य ओधाणं, जं उज्झति दव्वलिंगं तु ॥ यदि अपवाद स्वरूप तीन बार स्त्री का सेवन करने पर भी वेदोदय उपशांत नहीं होता, तब वह स्वअपेक्षा से परदेश में गमन करता है। इसी अवधावन से वह द्रव्यलिंग का परित्याग करता है। १६१६. एमेव बितियसुत्ते, बियभंगनिसेवियम्मि वि अठते । ताधे पुणरवि जयती, निव्वीतियमादिणा विधिणा || इसी प्रकार (भिक्षु मैथुनसूत्र की तरह) द्वितीय सूत्र अर्थात् भिक्षु के अवधावन सूत्र में द्वितीय भंग से मैथुन सेवित करने पर भी यदि वेदोदय उपशांत नहीं होता तब उसके उपशमन के लिए पुनः निर्विकृतिक आदि की विधि से यतना करता है। १६१७. जदि तह वी न उवसमे, ताधे जतती चउत्थभंगेणं । पुव्वत्तेणं विधिणा, निग्गमणे नवरि नाणत्तं ॥ यदि पूर्वोक्त विधि से वेदोदय का उपशमन नहीं होता है तो चतुर्थभंग में पूर्वोक्त विधि से पुनः मैथुन का सेवन कर, पुनः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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