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तीसरा उद्देशक
१५५ अभाव) में भी गण का भार दिया जाता है, यह सुनकर अतिप्रसंग वेदोदीर्ण शिष्य की विधिपूर्वक चिकित्सा करे। वह चिकित्सा का निवारण करने के लिए अपूर्ण पर्यायवाले को भी गण देंगे-इस निर्विकृतिक आदि के क्रम से वक्ष्यमाण विधि के अनुसार जाननी अभिप्राय का यह सूत्र है।
चाहिए। १५९६. दुविधो साविक्खितरो,
१६०१. निव्विति ओम तव वेय, वेयावच्चे तधेव ठाणे य। निरवेक्खोदिण्ण जातऽणापुच्छा।
आहिंडणा य मंडलि, चोदगवयणं च कप्पट्ठी॥ जोगं च अकाऊणं,
प्रारंभ में उस शिष्य को निर्विकृतिक तप कराना चाहिए। जो व स वेसादि सेवेज्जा॥ उससे यदि वेदोपशमन न हो तो अवमौदर्य, उपवास आदि तप, मैथुन का सेवन करने वाले दो प्रकार के होते हैं- सापेक्ष वैयावृत्त्य कराना, स्थान-ऊर्ध्वस्थान आदि, फिर विहार आदि और निरपेक्ष । निरपेक्ष वह होता है जो वेद के उदीर्ण होने पर गुरु कराना, यदि वह बहुश्रुत हो तो सूत्रमंडली, अर्थमंडली में नियुक्ति को बिना पूछे जाता है, अथवा जो योग-यतनायोग को बिना किए करनी चाहिए। इस स्थिति में जिज्ञासु प्रश्न करता है कि उस जाता है अथवा जो वेश्या आदि का सेवन करता है। ये तीन प्रकार शिष्य को मंडली क्यों दी जाती है? आचार्य यहां कुलवधू का के निरपेक्ष होते हैं।
दृष्टांत देते हैं। १५९७. सावेक्खो उ उदिण्णो,
१६०२. एवं पि अठायंते, अट्ठाणादेक्कमेक्क तिगवारा। आपुच्छ गुरुं तु सो जदि उवेहं।
वज्जेज्ज सचित्ते पुण, इमे उ ठाणे पयत्तेणं ।। तो गुरुणा उ भवंती,
यदि इन उपायों से भी वेदोपशमन नहीं होता है तो उसे सो व अणापुच्छ जदि गच्छे। स्थविरों के साथ अस्थान में, एक-एक में तीन-तीन बार, अचित्त सापेक्ष वह होता है जो वेद के उदीर्ण होने पर गुरु को योनि, सचित्त योनि। सचित्त में इन वक्ष्यमाण स्थानों का पूछता है। यदि पूछने में गुरु की उपेक्षा करता है, उसको चार प्रयत्नपूर्वक वर्जन करे। (पूरी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो साधु गुरु को बिना पूछे १६०३. सदेससिस्सिणि सज्झंतिया जाता है, उसको भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।
सिस्सिणि कुल-गणे य संघे य। १५९८. अधवा सइ दो वा वी, आयरिए पुच्छ अकडजोगी वा।
कुलकन्नगा य विधवा, गुरुगा तिण्णि उ वारे, तम्हा पुच्छेज्ज आयरिए॥
वधुका य तथा सलिंगेण॥ अथवा जो आचार्य को एक बार या दो बार पूछता है तो भी सचित्त विषयक परिहार-समान देश-जाति की शिष्यिणी, प्रायश्चित्त आता है। जो अकृतयोगी-जो यतनायोग किए बिना सज्जंतिया-स्वहस्तदीक्षित शिष्यिणी, समान कुल, गण, संघजाता है तब भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए वर्तिनी कुलकन्यका, विधवा, वधूकी-लघुकुलवधू-इनका आचार्य को तीन बार पूछे।
परिहार करना चाहिए अन्यथा प्रायश्चित्त आता है तथा स्वलिंग १५९९. बंधे या घाते य पमारणेसु,
से सेवन से प्रायश्चित्त आता है। दंडेसु अन्नेसु य दारुणेसु। १६०४. लिंगम्मि उ चउभंगो, पढमे भंगम्मि होति चरमपदं। पमत्तमत्ते पुण चित्तहेउं,
मूलं चउत्थभंगे, बितिए ततिए य भयणा उ।। लोए व पुच्छंति उ तिण्णि वारे॥ लिंग विषयक चतुर्भगी इस प्रकार है-१. स्वलिंग से राजा किसी को बंधन, घात, प्रमारण अथवा दारुण दंडों से स्वलिंग के साथ २. स्वलिंग से अन्य लिंग के साथ ३. अन्य दंडित करने का आदेश दे देता है तो लौकिक व्यवहार में भी उस लिंग से स्वलिंग के साथ ४. अन्य लिंग से अन्य लिंग के साथ। आदेश को क्रियान्वित करने से पूर्व राजा को तीन बार पूछा जाता प्रथम भंगवाले के चरमपद का प्रायश्चित्त अर्थात् पारांचित है क्योंकि संभव है राजा ने प्रमाद में अथवा मत्त अवस्था में वैसा प्रायश्चित्त आता है, चतुर्थ भंग वाले के मूल प्रायश्चित्त तथा आदेश दे दिया हो और बाद में चित्त प्रशांत हो गया हो और तब दूसरे भंग वाले के प्रायश्चित्त की भजना है। (देखें आगे) वह पूछ सकता है कि उस अपराधी को क्यों मार डाला? १६०५. सलिंगेण सलिंगे, सेवते चरिमं तु होति बोधव्वं । १६००.आलोइयम्मि गुरुणा,तस्स तिगिच्छा विधीय कायव्वा।
सलिंगेणऽन्नलिंगे, देवी कुलकन्नगा चरिमं ।। निव्वीतिगमादीया, नायव्व कमेणिमेणं तु॥ जो स्वलिंग से स्वलिंगी के साथ मैथुन सेवन करता है उसे शिष्य द्वारा आलोचना कर लेने के पश्चात् गुरु उस चरम-पारांचित प्रायश्चित्त आता है, यह जानना चाहिए। १. देखें-व्यवहारभाष्य कथा परिशिष्ट। For Private & Personal Use Only
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