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२३१. अहगं च सावराधी, आसो विव पत्थितो गुरुसगासं । वइयग्गामे संखडि, पत्ते आलोयणा तिविहा ।। मुनि को यह चिंतन करना चाहिए- मैं भी सापराध हूं। (मुझे गुरु के पास जाकर प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जाना चाहिए।) यह सोचकर गुरु के प्रति प्रस्थित होकर वह अश्व की भांति कहीं प्रतिबद्ध न हो - व्रजिका, ग्राम अथवा संखडि के प्रति प्रतिबद्ध न होकर सीधा आचार्य के पास पहुंचे और आलोचना करे । आलोचना के तीन प्रकार हैं-विहारालोचना, उपसंपदालोचना तथा अपराधा-लोचना । (प्रस्तुत में अपराधालोचना का प्रसंग है ।)
२३२. सिग्घुज्जुगती आसो, अणुयत्ताति सारहिं न अत्ताणं । इय संजममणुयत्तति, वइयादि अवंकितो साधू ।। जैसे अश्व शीघ्रगामी और ऋजुगति वाला होकर सारथी का अनुवर्तन करता है, स्वयं की इच्छा का नहीं, वैसे ही मुनि जिका आदि में गमन करते हुए वक्र गति न करे किंतु संयम का ही अनुवर्तन करे अर्थात् कहीं प्रतिबद्ध न होकर सीधा आचार्य के पास पहुंचे। २३३. आलोयणपरिणतो, सम्मं संपट्ठितो गुरुसगासं । दि अंतरा उ कालं, करेति आराहओ सो उ ।। जो मुनि आलोचना के परिणाम में परिणत होकर गुरु के पास जाने के लिए सम्यग्रूप से प्रस्थान कर लेता है और यदि वह बीच में ही कालकवलित हो जाता है, फिर भी वह आराधक है।
२३४. पक्खिय चउ संवच्छर, उक्कोसं बारसह वरिसाणं । समण्णा आयरिया, फड्डगपतिया य विगडेंति ।। समनोज्ञ - एक सांभोजिक आचार्य परस्पर तथा स्पर्द्धकपति आदि अपने मूल आचार्य के पास पाक्षिक आलोचना करे। वह न होने पर चातुर्मासिक, उसके अभाव में सांवत्सरिक तथा उसके अभाव में उत्कृष्ट बारह वर्षों में (दूर से आकर भी) विहार की आलोचना करे ।
२३५ तं पुण ओह - विभागे, दरभुत्ते ओह जाव भिन्नो उ ।
तेण परेण विभागो, संभम सत्यादि भयणा उ ।। विहारालोचना के दो प्रकार हैं-ओघ सामान्य और विभाग - विस्तृत | किसी गांव में साधु हैं। उन्होंने भोजन प्रारंभ कर दिया। इतने में ही अतिथि मुनि आ गये। वे वहां कुछ भोजन १. तेण ततः अर्थ में अव्यय है। (वृ. पत्र १७) ।
२. इस गाथा का तात्पर्य है सार्थ के साथ जाते हुए मुनि सार्थ के ठहरने के स्थान पर स्थायिका करते हैं। इतने में अतिथि साधु-साध्वी आ गये। साथ वहां से आगे चल पड़ता है। अथवा गामांतर में गाढ़ ग्लानत्व का प्रयोजन उपस्थित हो गया। वहां प्रतीक्षा नहीं की जाती।
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सानुवाद व्यवहारभाष्य
कर ओघ आलोचना करते हैं और मंडली में भोजन करने बैठ जाते हैं। यदि मूल गुणों में अपराध हुआ हो तो प्रायश्चित्त पंचक से भिन्न मास तक का प्रायश्चित्त लेकर साधुओं के साथ बैठते हैं। 'तेण परेण विभागो'- यदि भिन्नमास से परतः मासादिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पृथक् भोजन करते हैं, फिर विस्तार से आलोचना करते हैं। संभ्रम (अग्नि आदि के भय से होने वाली त्वरा) तथा सार्थ आदि की स्थिति में इसकी विकल्पना है। २३६. ओहेणेगदिवसिया, विभागतो एगऽणेग दिवसा उ ।
रत्तिं च दिवसतो वा, विभागतो ओघतो दिवस ।। ओघ ओलचना नियमतः एक दैवसिकी होती है। विभाग आलोचना एक दैवसिकी अथवा अनेक दैवसिकी होती है। यह दिन में प्रारंभ कर रात्री में भी होती है क्योंकि इसमें आलोचना का विस्तार रहता है। ओघ आलोचना केवल दैवसिकी होती है। (अल्प अपराध तथा भोजनकाल की निकटता के कारण ) । २३७. विभागओ अपसत्थे, दिणम्मि रत्तिं विवक्खतो वावि ।
आदिल्ला दोणि भवे, विवक्खतो होति ततिया उ ।। प्रथम दो आलोचनाएं -विहारालोचना और उपसंपदालोचना विस्तार से होती हैं। इनकी आलोचना अप्रशस्त (व्यतिपात आदि दोषयुक्त) दिन-रात में भी दी जा सकती है तथा विपक्षतः अर्थात् प्रशस्त दिन-रात में भी दी जा सकती है। विभाग अर्थात् विस्तार से दी जाने वाली तीसरे प्रकार की आलोचना- अपराधालोचना विपक्षतः अर्थात् प्रशस्त दिन या रात में ही दी जा सकती है।
२३८. अप्पा मूलगुणेसुं, उत्तरगुणतो विराधणा अप्पा | पासत्थादिसु, दाणग्गहसंपयोगोहा ।।
अप्पा
मूलगणों की अल्प विराधना, उत्तरगुणों की अल्प विराधना, पार्श्वस्थ आदि की अल्प विराधना होने पर तथा दानसंप्रयोग और ग्रहणसंप्रयोग-इनमें ओघ आलोचना होती है। २३९. भिक्खादिनिग्गएसुं, रहिते विगडेंति फड्डगवईओ ।
सव्वसमक्खं केई, ते वीसरियं तु सारेंति ।। भिक्षा आदि के लिए साधुओं के चले जाने पर एकांत में आचार्य के पास स्पर्द्धकपति आकर आलोचना करते हैं। कुछ आचार्य कहते हैं कि वे अपने साथ समागत साधुओं के समक्ष आलोचना करते हैं, क्योंकि साथ वाले मुनि विस्मृत की स्मृति करा देते हैं।
अथवा आने वाले मास आदिक परिहारस्थान प्राप्त हैं। पात्र पृथक् नहीं है, जिससे कि वे अलग भोजन करें। तब ओघ आलोचना कर वास्तव्य साधुओं के साथ भोजन कर ले। पात्र मिलने पर पृथक् भोजन करे और विभागतः आलोचना करे।
(वृ. पत्र १७)
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