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________________ सातवां उद्देशक ३०५ भ्राता, पुत्र आदि की अनुज्ञा तो ली ही जाती है। पुत्र, भ्राता आदि है। अवज्ञा से यत्र-तत्र गए हुए साधु जहां रात्रीवास करते हैं, उस दो-दो प्रकार के हैं-प्रभु और अप्रभु। अप्रभु ये होते हैं दिन वह शय्यातर होता है। ३३४६. आदेस-दास-भइए, विरिक्क जामातिए या दिण्णा उ। ३३५२. वीसमंता वि छायाए, जं तहिं पढम ठिया। __अस्सामि मास लहुओ, सेस पभूऽणुग्गहेणं वा।। चिट्ठति पुच्छिउं ते वि, पंथिए किं जहिं वसे॥ आदेश-प्राघूर्णक, दास, भृतक, विरिक्त-धन का हिस्सा छाया में विश्राम करने से इच्छुक साधु वहां पहले से बैठे लेने वाले पुत्र, भाई या अन्य, जामाता, दत्तकन्या-ये अस्वामी हुए पथिकों में से पूछकर बैठे। तो फिर जहां निवास करना हो अर्थात् अप्रभु होते हैं। इनकी अनुज्ञा लेने से मासलघु का वहां तो अनुज्ञा अत्यावश्यक है। प्रायश्चित्त आता है। शेष प्रभ होते हैं। अथवा प्रभ के द्वारा ३३५३. वसंति व जहिं रत्ति, एगाऽणेगपरिग्गहे। अनुगृहीत पुरुष भी प्रभु होते हैं। तत्तिए तु तरे कुज्जा , ठावंतेगमसंथरे। ३३४७. दिय रातो निच्छुभणा, अप्पभुदोसा अदिण्णदाणं च। जो वृक्ष एक के अधीन हो अथवा अनेक पथिकों के अधीन तम्हा उ अणुन्नवए, पमुं च पभुणा व संदिटुं॥ हो, वहां यदि साधु रात्रीवास करना चाहे तो सभी को शय्यांतर अप्रभु की अनुज्ञापना के ये दोष हैं-दिन में अथवा रात्री में करे अथवा संस्तरण न हो सके तो उन पथिकों के मध्यम किसी वे उस स्थान से निष्कासन कर सकते हैं, अदत्तादान का दोष एक को शय्यातर करे अथवा संस्तरण न हो सके तो उन पथिकों आता है। इसलिए प्रभु अथवा प्रभु द्वारा संदिष्ट व्यक्ति से अनुज्ञा के मध्य किसी एक को शय्यातर स्थापित करे। ले। ३३५४. सागारिय साधम्मिय, उग्गहगहणेऽणुवत्तमाणम्मि। सत्तम अंतिमसुत्तं, ठवंति राउग्गहे थेरा॥ ३३४८. गहपति गिहवतिणी वा, सागारिक अवग्रह के अनुवर्तन में साधर्मिक के अवग्रह के अविभत्तसुतो आदिन्नकण्णा वा। ग्रहण का अनुवर्तन हैं। सातवें उद्देशक के अंतिम सूत्रद्वय में पभवति निसिट्ठविहवा, स्थविर मुनि राजावग्रह स्थापित करते हैं। आदिद्वे वा सयं दाउं॥ ३३५५. संथड मो अविलुत्तं, पडिवक्खो वा न विज्जते तस्स। गृहपति, गृहपत्नी, अविभक्तपुत्र, अदत्तकन्या, विधवा पुत्री अणहिट्ठियमन्नेण व, अव्वोगड दाइ सामन्नं ।। जो निसृष्ट-घर में ही रहती है तथा जो प्रभु द्वारा स्वयं आदिष्ट ३३५६. अव्वोगडं अविगडं संदिटुं वा वि जं हवेज्जाहि। है-ये सारे प्रभु हैं। इनकी अनुज्ञा ली जा सकती है। अव्वोच्छिन्न परंपरमागया तस्सेव वंसस्स। ३३४९. उग्गहपभुम्मि दिढे, कहितं पुण सो अणुण्णवेतव्वो। जो संस्तृत अर्थात् राज्य अविलुप्त है, जिसका कोई ___ अद्धाणादीएसु वि, संभावण सुत्तसंबंधो॥ प्रतिपक्ष नहीं है, अन्य किसी ने जिस पर अधिकार नहीं किया है, अवग्रह-स्थान के स्वामी को देख लेने पर उसकी अनुज्ञा जो अव्याकृत अर्थात् जो विभक्त नहीं हुआ है, जो अविकृत है, जो कहां लेनी चाहिए? मार्ग आदि में भी अनुज्ञा ली जा सकती है। पूर्वराजा के द्वारा संदिष्ट है कि अमुक को राजा बनाना है अथवा यह संभावना सूत्रसंबंध है। अव्यवच्छिन्न है अर्थात् जो उसी वंश परंपरा से प्राप्त है-इन सबमें ३३५०. अद्धाण पुव्वभणितं, सागारियमग्गणा इहं सुत्ते। पूर्व अनुज्ञा का अनुवर्तन होता है। एगेण परिग्गहिते, सागारिय सेसए भयणा॥ ३३५७. पुव्वाणुण्णा जा पुव्वएहि राईहि इह अणुण्णाता। मार्ग विषयक सारा वक्तव्य पूर्व किया जा चुका है। प्रस्तुत लंदो तु होति कालो, चिट्ठति जावुग्गहो तेसिं॥ सूत्र में मार्ग में शय्यातर की मार्गणा की जाती है। किसी एक पूर्वानुज्ञात का तात्पर्य है पूर्व राजाओं द्वारा अनुज्ञात। लंद व्यक्ति ने वृक्ष आदि को परिगृहीत कर लिया है-अपना बना लिया का अर्थ है-काल। जितने काल तक उस वंश का अनुवर्तन होता है वह शय्यातर है, शेष की भजना है। है, उतने काल तक उनका अवग्रह रहता है। वही अवग्रह ३३५१. दिणे दिणे जस्स उवल्लियंती, पूर्वानुज्ञात है। भंडी वहंते व पडालियं वा। ३३५८. जं पुण असंथडं वा, गडं व तह वोगडं व वोच्छिण्णं। सागारिए होति स एग एव, नंदमुरियाण व जधा, वोच्छिन्नो जत्थ वंसो उ॥ रीढागतेसुं तु जहिं वसंति॥ ३३५९. तत्थ उ अणुण्णविज्जति,भिक्खुब्भावट्ठमुग्गहो नियतं। दिन-दिन में जिस सार्थवाह की चलती हुई गंत्री का आश्रय दिक्खादि भिक्खुभावो, अधवा ततियव्वयादी तु॥ लेते हैं अथवा पडालिका में रहते हैं तो वह एक ही शय्यातर होता जो राज्य असंस्तृत है अर्थात् शकट की तरह जीर्णशीर्ण है, १. पडालिका सार्थवाह मध्यान्ह में जहां रहते हैं, वह स्थान। अथवा निवास के लिए सामियाना बांधते हैं, वह स्थान। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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