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________________ श ३०६ सानुवाद व्यवहारभाष्य जो व्याकृत है अर्थात् दायादों तथा अन्य वंशजों से विभाजित है, इस विधि से अनुज्ञापित वह राजा यदि कहे मैं तुम्हें क्या जो व्यवच्छिन्न है अर्थात् मौर्यवंशजों ने नंदवंश का व्युच्छेद कर दूं? तब उसे कहे-जो अन्य राजाओं ने दिया वही मुझे दें। डाला था, वैसा है-ऐसी स्थिति में अवश्यरूप से भिक्षुभाव के ३३६५. जाणतो अणुजाणति,अजाणओ भणति तेहि किं दिण्णं। संपादन के लिए अनुज्ञा ली जाती है। दीक्षा आदि तथा तृतीयव्रत पाउग्गं ति य भणिए, किं पाउग्गं इमं सुणसु॥ आदि को भिक्षुभाव कहा जाता है। इस प्रकार कहने पर यदि राजा जानता है तो वह उसकी ३३६०. रण्णो कालगतम्मी, अत्थिरगुरुगा अणुण्णवेतम्मि। बात स्वीकार कर लेता है। यदि राजा अज्ञायक है तो कहता आणादिणो य दोसा, विराधण इमेसु ठाणेसु॥ है-अन्य राजाओं ने क्या दिया? तब कहना चाहिए जो निग्रंथों राजा के कालगत हो जाने पर राज्य का जो स्थिर दायाद है के प्रायोग्य था वह दिया। तब राजा पुनः पूछता है- प्रायोग्य क्या उसकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। अस्थिर की अनुज्ञा लेने पर चार है? तब कहना चाहिए प्रायोग्य यह होता है, सुनो। गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा ३३६६. आहार-उवधि-सेज्जा , आत्मविराधना और संयमविराधना के साथ-साथ इन स्थानों में ठाण-निसीदण-तुयट्ट-गमणादी। विराधना होती है थीपुरिसाण य दिक्खा, ३३६१. धुवमण्णे तस्स मज्झे व, तह एक्केव मुक्कसन्नाहो। दिण्णा णो पुव्वराईहिं॥ दोण्हेगतरपदोसे, अणणुण्णवणे थिरे गुरुगा।। आहार, उपधि, शय्या-वसति, स्थान-कायोत्सर्ग भूमी, अन्य वंशज अथवा उसी राजा के दायादों में से किसी एक निषीदन, शयन, गमन आदि तथा स्त्री-पुरुषों की दीक्षा-ये सारी अस्थिर व्यक्ति की अनुज्ञा लेता है तो वह यह सोचता है कि बातें अनुज्ञा द्वारा पूर्व राजाओं ने दी है। यही प्रायोग्य है। निश्चित ही मैं राजा होऊंगा, यह सोचकर वह मुक्तसन्नाह-पूर्ण ३३६७. भद्दो सव्वं वियरति, पंतो पुण दिक्ख वज्जमितराणि। निश्चिंत हो जाता है। तब दो प्रतिद्वंद्वियों में किसी एक के मन में __ अणुसठ्ठादिमकाउं, णिते गुरुगा य आणादी। प्रद्वेष होता है। (इससे देश से निष्कासन अथवा जीव और यह सुनकर जो राजा भद्रक होता है वह इन सब का चारित्र से च्युत भी किया जा सकता है। अतः जो स्थिर है वितरण करता है, जो प्रांत होता है वह दीक्षा का वर्जन कर अन्य उसकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। उसकी अनुज्ञा न लेने पर चार सबका वितरण करता है। उस राजा का अनुशासन माने बिना जो गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां से निर्गमन करते हैं, उनको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त ३३६२. अणुण्णविते दोसा, पच्छा वा अप्पितो अवण्णा वा। तथा आज्ञाभंग आदि दोष होता है। पत्ते पुव्वममंगल, निच्छुभण पदोसं पत्थारो॥ ३३६८. चेइय सावग पव्वइउकामअतरंत बालवुड्डा य। स्थिर की अनुज्ञा न लेने के ये दोष हैं-(अनुज्ञा कब-पहले, __ चत्ता अजंगमा वि य, अभत्ति तित्थस्स परिहाणी॥ पश्चात् या मध्य में?) यदि अन्य पाषण्डियों के अनुज्ञा लेने के वहां से निर्गमन करने वाले मुनियों ने चैत्यों का, प्रव्रज्या बाद वह अनुज्ञा लेता है तो वह राजवंशी सोचता है-मैं इनके लिए लेने के इच्छुक श्रावकों का, ग्लान, बाल, वृद्ध, तथा अजंगमअप्रिय हूं अथवा ये मेरी अवज्ञा कर रहे हैं। यदि प्राप्त राज्य वाले इन सबका परित्याग किया है। इससे तीर्थ की अभक्ति और व्यक्ति से पहले अनुज्ञा लेते हैं तो वह अमंगल मानकर उनका परिहानि होती है। निष्कासन कर देता है अथवा प्रद्वेष से प्रस्तार अर्थात् मरवा ३३६९. अच्छंताण वि गुरुगा, डालता है। (इसलिए मध्य में अनुज्ञापित करना चाहिए।) अभत्ति तित्थस्स हाणि-जा वुत्ता। ३३६३. ओधादी आभोगण, निमित्तविसएण वावि नाऊणं। भणमाण भणावेंता, भद्दगपुव्वमणुण्णा, पंतमणाते व मज्झम्मि॥ अच्छंति अणिच्छ वच्चंति॥ (कैसे जाना जाए कि यह स्थिर है ? भद्रक है ? अथवा पूर्व वहां रहने वालों को भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता में अनुज्ञापित होने पर मंगल मानने वाला है ?) आचार्य कहते है। तीर्थ की अभक्ति और परिहानि जो कही है, तो क्या करना हैं-अवधि आदि ज्ञान से, श्रुतातिशय से अथवा निमित्तविशेष से चाहिए। वे मुनि वहां रहते हुए स्वयं स्वाध्याय या अध्ययन करते जानकर भद्रक को पूर्व अनुज्ञापित करे, प्रांत तथा अज्ञात को हुए दूसरों को भी कराए। फिर भी यदि राजा न चाहे तो वहां से मध्य में अनुज्ञापित करे। विहार कर दे। ३३६४. एतेणं विधिणा ऊ, सोऽणुण्णवितो जया वदेज्जाहि। ३३७०. अह पुण हवेज्ज दोन्नी, रज्जाइं तस्स नरवरिंदस्स। राया किं देमि त्ति य, जं दिण्णं अण्णराईहिं।। तहियं अणुजाणते, दोसु वि रज्जेसु अप्पबहु ।। For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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