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सातवां उद्देशक
३०७ उस राजा के दो राज्य हों और उसमें रहने की अनुमति देते ३३७६. केवइयं वा एतं, गोप्पदमेत्तं इमं तुहं रज्ज। हुए वह कहे कि दोनों में से एक में जहां आप चाहें वहां रहें। यह
जं पेल्लिउं व नासिय, गम्मति य मुहुत्तमेत्तेणं॥ कहने पर मुनि लाभ विषयक अल्प-बहुत्व की मीमांसा कर जहां तुम्हारा राज्य है ही कितना! वह तो गोष्पदमात्र जितना लाभ अधिक होता हो, वहां रहे।
है। उसको मुहूर्त्तमात्र मैं आक्रांत कर, नष्ट किया जा सकता हैं। ३३७१. एक्कहि विदिण्णरज्जे,ऽणुण्णा एगस्थ होइ अविदिण्णं। ३३७७. जं होऊ तं होऊ, पभवामि अहं तु अप्पणो रज्जे। एगत्थ इत्थियातो, पुरिसज्जाता य एगत्थ।।
सो भणति नीह मज्झं, रज्जातो किं बहूणा उ॥ किसी एक राज्य में वितीर्ण-स्त्री, पुरुष दोनों अनुज्ञात राजा कहता है-मेरा राज्य जो है, जितना है, वह है। मैं होते हैं, किसी राज्य में अवतीर्ण-स्त्री या पुरुष अनुज्ञात होते हैं।
अपने राज्य में सबकुछ करने में समर्थ हूं। तुम मेरे राज्य से किसी राज्य में केवल स्त्रियां अनुज्ञात होती हैं और किसी राज्य । निर्गमन करो। अधिक बात से क्या! में केवल पुरुष अनुज्ञात होते हैं।
३३७८. अणुसट्ठी धम्मकहा, विज्जनिमित्तादिएहि आउट्टे। ३३७२. थेरा तरुणा य तधा, दुग्गतया अड्डया य कुलपुत्ता।
अठिंते पभुस्स करणं, जधाकतं विण्हुणा पुव्वं ॥ जाणवया नागरया, अब्भंतरया कुमारा य॥
तब मुनि राजा को अनुशासन से, धर्मकथा से, विद्या, इसी प्रकार कहीं स्थविर, कहीं तरुण, कहीं निर्धन, कहीं
निमित्त आदि से अनुकूल बनाए। यदि वह न माने तो दूसरे को धनाढ्य, कहीं कुलपुत्र, कहीं जानपद, कहीं नागरजन, कहीं
प्रभु-राजा बनादे, जैसे पहले विष्णुकुमार ने किया था। अभ्यंतरक-जो राजा के अति सन्निकट हों और कहीं कुमार
३३७९. वेउब्वियलद्धी वादी, सत्थे विज्ज-ओरस-बली वा। अनुज्ञात होते हैं।
तवलद्धिपुलागो वा, पेल्लिती तम्मितरे गुरुगा॥ । ३३७३. ओहीमादी गाउं, जे बहुतरया उ पव्वयंति तहिं।
जो वैक्रियलब्धिसंपन्न है, जो वादिशास्त्रों में अपराजेय है, ते बेंति समणुजाणसु, असती पुरिसेव जे बहुगा॥
जो विद्याबल से युक्त है, जो औरसबली है, जो तपोलब्धि अर्थात् अवधिज्ञान आदि से यह जानकर कि वहां बहुत सारे व्यक्ति
पुलाकलब्धि से संपन्न है-ऐसा मुनि अन्य प्रभु (दूसरे को राजा) प्रवजित होंगे तो उस राज्य की अनुज्ञा लें। अवधिज्ञान आदि के
करने में समर्थ होता है। जो शक्तिसंपन्न होने पर भी अन्य प्रभु
नहीं करता उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अभाव में जो बहुत पुरुष हों उनको अनुज्ञापित करे, शेष को
३३८०. तं घेत्तु बंधिऊणं, पुत्तं रज्जे ठवेति तु समत्थो। नहीं।
असती अणुवसमंते, निग्गंतव्वं ततो ताधे। ३३७४. एताणि वितरति तहिं,
जो समर्थ होता है वह उस राजा का निग्रह कर, बांधकर, कम्मघणो पुण भणेज्ज तत्थ इमं।
पुत्र को राजा के रूप में स्थापित कर देता है। सामर्थ्य न होने पर दिट्ठा उ अमंगल्ला,
तथा अनुशासन से उपशांत न होने पर, उस देश से निर्गमन कर मा वा दिक्खेज्ज अच्छंता॥
देना चाहिए। प्रांत राजा भी इन सबका वितरण करता है, अनुमति दे
३३८१. भत्तादिफासुएणं, अलब्भमाणे य पणगहाणीए। देता है। जो कर्मघन-अर्थात् सघन कर्मवाला है वह अनुज्ञापना के
अद्धाणे कातव्वा, जयणा तू जा जहिं भणिया।। अवसर पर यह कहता है-देख लिया आप संतों को, तुम सब
मार्ग में यदि प्रासुक भक्त आदि का लाभ न हो तो अमंगल हो। वहां रहते हुए भी तुम किसी को दीक्षित मत करना।
पंचकहानि से यतना करनी चाहिए, जिसका जहां कथन ३३७५. मा वा दच्छामि पुणो,
कल्पाध्ययन में (ग्राम, नगर, अरण्य आदि के संदर्भ में) किया अभिक्खणं बेंति कुणति निव्विसए।
गया है। पभवंतो भणति ततो, भरहाहिवती न सि तुमं ति॥
सातवां उद्देशक समाप्त अथवा वह कहे, मैं पुनः देखना नहीं चाहता। तब वे मुनि बार-बार उसे स्वयं या दूसरों से निवेदन कराते हैं। यह देखकर मुनियों को देश से निष्कासित कर देता है। तब जो समर्थ होता है वह कहता है-देश से हमें निष्कासित करने वाले कौन होते हो? तुम भरताधिपति नहीं हो।
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