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________________ दसवां उद्देशक ४०३ विस्मृत सामाचारीकरण) जघन्य भूमी अर्थात् सातवें दिन उसे बधिर का विज्ञान अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय विज्ञान आवृत है किंतु उपस्थापना दे देनी चाहिए। दुर्मेधा वाले तथा अश्रद्धावान् श्रोत्र आवृत नहीं है। इसी प्रकार अपटुप्रज्ञ बालक, अतिवृद्ध (अभावित) के लिए उत्कृष्टभूमी का विधान है। मनुष्य, असन्नी पंचेन्द्रिय प्राणी-इनका विज्ञान आवृत है क्योंकि ४६०६. एमेव य मज्झमिया, अणहिज्जंते असद्दहते य। ये सुनते हुए भी नहीं जानते कि अमुक शब्द शंख का है अथवा भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठाय मज्झमिया॥ पटह का। इसी प्रकार मध्यमभूमी भी जो मंद बुद्धि हैं, पढ़ने में ४६१५. किं ते जीवअजीवा, जीवं ति य एव तेण उदियम्मि। असमर्थ हैं, तथा श्रद्धावान् अर्थात् भावित नहीं है, उनके लिए हैं। भण्णति एव विजाणसु, जीवा चउरिंदिया बेंति॥ अथवा भावित तथा मेधावी के भी करणजय के लिए मध्यमभूमी प्रश्न है, क्या बधिर आदि जीव हैं अथवा अजीव। वे जीव का निर्देश है। ही हैं'-ऐसा उसके कहने पर कहा जाता है कि चतुरिन्द्रिय जीवों ४६०७. आणा दिद्रुतेण य, दुविधो परिणामगो समासेणं। को जीव जानो। आणा परिणामो खलु, तत्थ इमो होति नायव्वो।। ४६१६. एवं चक्खिदिय-घाण, जिब्भ-फासिंदिउवघातेहिं। परिणामक दो प्रकार के हैं-आज्ञापरिणामक और एक्केक्कगहाणीए, जाव उ एगिदिया नेया॥ दृष्टांतपरिणामक। संक्षेप में आज्ञापरिणामक वह होता है, जो इस प्रकार एक-एक इंद्रिय की परिहानि से चक्षुरिन्द्रिय, ४६०८. तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं। घ्राणेन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय के उपधात से त्रीन्द्रिय से एकेन्द्रिय आणाए एस अक्खातो, जिणेहिं परिणामगो।।। पर्यंत जानना चाहिए। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के उपघात से त्रीन्द्रिय, वही सत्य है जिसका जिनेश्वर ने प्रवेदन किया है-जो घ्राणेन्द्रिय के उपघात से द्वीन्द्रिय और जिह्वेन्द्रिय के उपघात से निःशंकरूप से इस पर श्रद्धा करता है, उसे जिनेश्वर ने । एकेन्द्रिय होते हैं। आज्ञापरिणामक कहा है। ४६१७. सण्णिस्सिंदियंघाते वि, तन्नाणं नावरिज्जति। ४६०९. परोक्खं हेउगं अत्थं, पच्चक्खेण उ सायं। विण्णाणं नऽत्थऽसण्णीयं, विज्जमाणे वि इंदिए। जिणेहिं एस अक्खातो, दिटुंतपरिणामगो।। संज्ञी जीवों के इन्द्रियघात होने पर भी उपहत इंद्रिय का जो परोक्षहेतुगम्य अर्थ को प्रत्यक्ष (दृष्टांत) से सिद्ध करता ज्ञान आवृत नहीं होता। असंज्ञी जीवों के इंद्रिय होने पर भी है, उसे जिनेश्वर ने दृष्टांतपरिणामक कहा है। विज्ञान नहीं होता। ४६१०. तिस्सिंदियाणि पुव्वं, सीसंते जइ उ ताणि सद्दहति। ४६१८. जो जाणति य जच्चंधो, वण्णे रूवे विकप्पसो। तो से नाणावरणं, सीसइ ताधे दसविहं तु॥ नेत्ते वावरिते तस्स, विण्णाणं तं तु चिट्ठति ॥ दृष्टांतपरिणामक को पहले इंद्रियों का बोध कराया जाता ४६१९. पासंता वि न जाणंति, विसेसं वण्णमादिणं। है। यदि इंद्रियों पर उसकी श्रद्धा है तो उसे दस प्रकार के बाला आसण्णिणो चेव, विण्णाणावरियम्मि उ॥ ज्ञानावरण का बोध कराया जाता है। जन्मांध व्यक्ति स्पष्टरूप से वर्ण और रूप को विकल्पतः ४६११. इंदियावरणे चेव, नाणावरणे इय।। अर्थात् अनेक प्रकार से जानता है, यद्यपि उसके नेत्र आवृत है तो नाणावरणं चेव, आहितं तु दु पंचधा। परंतु उसका विज्ञान आवृत नहीं है। (इन्द्रियोपघात होने पर भी इंद्रियावरण और ज्ञानावरण ये दो हैं। इंद्रियावरण अर्थात् विज्ञानोपघात नहीं भी होता और विज्ञानोपघात होने पर भी इंद्रियविषयों के सामान्योपयोगावरण। ज्ञानावरण अर्थात् इन्द्रियोपघात नहीं भी होता।) बालक और असंज्ञी प्राणी देखते इंद्रियविषयों के विशेषोपयोगावरण। इस प्रकार ज्ञानावरण हुए भी वर्ण आदि को विशेषरूप से नहीं जान पाते क्योंकि उनका द्विपंचधा अर्थात् दस प्रकार का कहा है। जैसे विज्ञान आवृत है। ४६१२. सोइंदियआवरणे, नाणावरणं च होति तस्सेव। ४६२०. इंदियउवधातेणं, कमसो एगिदि एव संवुत्तो। एवं दुयभेदेणं, णेयव्वं जाव फासो ति॥ अणुवहते उवकरणे, विसुज्झती ओसधादीहिं॥ श्रोत्रावरण और उसी श्रोत्र का ज्ञानावरण-इस प्रकार दो ४६२१. अवचिज्जते य उवचिज्जते य भेद हो गए। ऐसे स्पर्शनेन्द्रिय तक ज्ञातव्य है। जह इंदिएहि सो पुरिसो। ४६१३. बहिरस्स उ विण्णाणं, आवरियं न पुण सोतमावरियं। एस उवमा पसत्था, अपडुप्पण्णो बालो, अतिवुड्डो तध असण्णी वा।। संसारीणिंदियविभागे॥ ४६१४. विण्णाणावरियं तेसिं, कम्हा जम्हा उ ते सुणेता वि। कोई पुरुष इंद्रियों के क्रमशः उपघात से एकेन्द्रिय हो गया। __ न वि जाणते किमयं , सद्दो संखस्स पडहस्स॥ यदि उपकरण इन्द्रिय अनुपहत है तो वह औषध आदि के प्रयोगों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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