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________________ ४०४ सानुवाद व्यवहारभाष्य से विशुद्ध हो जाता है-सर्वस्पष्टेन्द्रिय हो जाता है। जैसे वह पुरुष ४६२८. जाहे सद्दहति तेउ, वाऊ जीवा सि ताहे सीसंति। इंद्रियों से अपचित और उपचित होता है-यह उपमा संसारी सत्थपरिणाए वि य, उक्कमकरणं तु एयट्ठा ।। प्राणियों के इंद्रियविभाग में प्रशस्त है। (संसारी प्राणी पंचेन्द्रिय जब वह तेजस्कायिक जीवों पर श्रद्धा कर लेता है तब उसे होकर क्रमश एकेन्द्रिय भी हो जाते हैं। द्वीन्द्रिय आदि प्राणी वायुकायिक जीवों के विषय में बताना चाहिए। शस्त्रपरिज्ञा त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय भी हो जाते हैं। अध्ययन में भी इसी प्रयोजन से उत्क्रमण किया गया है। ४६२२. परिणामो जं भणियं, जिणेहि अह कारणं न जाणाति। ४६२९. एस परिणामगो ऊ, दिटुंतपरिणामेण, परिवाडी उक्कमकमाणं॥ भणितो अधुणा उ जड्ड वोच्छामि। जिनेश्वर देव ने जो यह कहा कि इंन्द्रियों का विभाग सो दुविधो नायव्वो, परिणामतः होता है। परंतु उसका कारण नहीं जाना जाता। उसके भासाए सरीरजड्डो उ॥ इस प्रकार कहने पर दृष्टांत से परिणाम को ग्रहण कर उत्क्रम इस प्रकार दो परिणामक के विषय में कहा गया है। अब परिपाटी से कहना चाहिए। जड़ के विषय में कहूंगा। वह दो प्रकार का होता है-भाषाजड़ और ४६२३. चरितेण कप्पितेण व, दिट्ठतेण व तधा तयं अत्थं।। शरीरजड़। उवणेति जधा णु परो, पत्तियति अजोग्गरूवं पि॥ ४६३०. जलमूग-एलमूगो मम्मणमूगो य भासजड्डो य। चरित अथवा कल्पित दृष्टांत से उस अर्थ का उपनय इस . दुविधो सरीरजड्डो, तुल्लो करणे अणिउणो य॥ प्रकार करना चाहिए कि दूसरा व्यक्ति अयोग्य रूप (अयथार्थ) के भाषाजड़ के तीन प्रकार हैं-जड़मूक, एड़कमूक तथा प्रति भी विश्वास कर ले। मन्मनमूक। शरीरजड़ के दो प्रकार हैं-शरीर से जड़ तथा ४६२४. दिट्ठतो परिणामे, कधिज्जते उक्कमेण व कयाइ। क्रियाजड़-क्रिया में अनिपुण। जह तू एगिंदीणं, वणस्सती कत्थई पुव्वं॥ ४६३१. पढमस्स नत्थि सद्दो, जलमज्झे व भासओ। जो दृष्टांतपरिणामक (दृष्टांत से समझने वाला) होता है बीयओ एलगो चेव, अव्वत्तं बुब्बुयायइ।। उसे कदाचित् उत्क्रम से भी कहा जाता है। जैसे आचारांग के प्रथम अर्थात् जड़मूक का कोई शब्द नहीं होता। जलमध्य शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में एकेन्द्रिय जीवों के जीवत्व संसाधन के बीच बोलने वाले का शब्द नहीं होता। दूसरा है एड़कमूक। वह करते हुए (क्रम का उल्लंघन कर) पहले वनस्पति का कथन करते एड़क की भांति अव्यक्तरूप में 'बु बु' करता है 'वुच्छुयायते'। ४६३२. मम्मणो पुण भासंतो, खलए अंतरंतरा। ४६२५. पत्तंति पुप्फंति फलं ददंती, चिरेण णीति से वाया, अविसुद्धा व भासते।। कालं वियाणंति तधिंदियत्थे। मम्मणमूक वह होता है जो बोलता हुआ बार-बार बीचजाती य वुड्डी य जरा य जेसि, बीच में स्खलित होता है अथवा बोलते हुए उसके वायु चिरकाल कहं न जीवा हि भवंति ते उ॥ से बाहर निकलती है अथवा विशुद्ध नहीं बोलता। जो पत्रित (पत्रयुक्त) होते हैं, पुष्पित होते है, फल देते हैं, ४६३३. दुविधेहि जड्डदोसेहि, विसुद्धं जो उ उज्झती। (पत्रित-पुष्पित और फलित होने के) काल को जानते हैं तथा काया चत्ता भवे तेणं, मासा चत्तारि गुरुगा य॥ इंद्रियों के विषयों को जानते हैं, जिनका जन्म होता है, जो बढ़ते' दोनों प्रकार के जड़दोष से जो विशुद्ध है उसका जो हैं, जो जराग्रस्त होते हैं-वे जीव क्यों नहीं होते? परित्याग करता है, उसके द्वारा छहों काय त्यक्त हो जाते हैं। ४६२६. जाधे ते सद्दहिता, ताधि कहिज्जति पुढविकाईया। उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जध उ पवाल-लोणा, उवलगिरीणं च परिवुड्डी॥ ४६३४. कधिते सद्दहिते चेव, ओयति पडिग्गहे। जब वे 'वनस्पति जीव है' ऐसी श्रद्धा कर लेते हैं तब उन्हें मंडलीए उवटुंतु, इमे दोसा य अंतरा॥ पृथ्वीकायिक जीव हैं-ऐसा कहा जाता है। जैसे प्रवाल, लवण, षट्जीवनिकायों के विषय में कहने पर, तथा सुनकर श्रद्धा उपल और गिरि की परिवृद्धि होती है। ये पृथ्वीजीव है। हो जाने पर उसको पतद्ग्रह-पात्र दिया जाता है तथा मंडली में ४६२७. कललंडरसादीया, जह जीवा तधेव आउजीवा वि। उसे भोजन कराया जाता है। अन्यथा ये दोष उत्पन्न होते हैं जोतिंगण जरिए वा, जहण्ह तह तेउजीवा वि॥ ४६३५. पायस्स वा विराधण, जैसे कलल-अंडरस जीव है वैसे अप्कायजीव हैं। जैसे अतिधी दट्ठण उड्डवमणं वा। ज्योतिरिंगण अर्थात् खद्योत तथा ज्वर की उष्मा जीव है वैसे ही सेहस्स वा दुगुंछा, तेजस्काय जीव है। सव्वे दुद्दिठ्ठधम्मो ति॥ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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