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दूसरा उद्देशक
९७७. अब्भुट्ठियस्स पासम्मि, वहंतो जदि कयाइ आवज्जे। और छाद्मस्थिक। नोज्ञान विषयक द्विक-दृष्टि (सम्यक्त्व) तथा
अत्थेणेव उ जोगो, पढमाओ होति बितियस्स॥ चरण (चारित्र)।
कोई पार्श्वस्थ आदि प्रायश्चित्त तप वहन करने की दृष्टि से ९८३. एक्केक्कं पि य तिविहं, सट्ठाणे नत्थि खइय अतियारो। आया है, और कदाचिद् उसे अन्य तपोर्ह प्रायश्चित्त आ गया उवसामिएसु दोसुं अतियारो होज्ज सेसेसु।। उसकी भी उसको आलोचना करनी चाहिए। उस आलोचना का एकैक अर्थात् दर्शन और चारित्र प्रत्येक के तीन-तीन इस अध्ययन में प्रतिपादन है। यह प्रथम उद्देशक का दूसरे प्रकार हैं-क्षायिक, औपशमिक तथा क्षायोपशमिक। क्षायिक उद्देशक के साथ अर्थतः संबंध स्थापित होता है।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वस्थान में कोई अतिचार नहीं ९७८. अधवा एगस्स विधी, वुत्तो गाण होति अयमन्नो।। होता। औपशमिक-भाव में वर्तमान दो में अर्थात् दर्शन और
आइण्णविगडिते वा, पट्ठवणा एस संबंधो॥ चारित्र में स्वस्थान में अतिचार नहीं होता। शेष अर्थात्
अथवा पहले एक की प्रायश्चित्तदानविधि कही गई है। अब क्षायोपशमिक भाव में स्वस्थान और परस्थान-दोनों स्थानों में अनेक की प्रायश्चित्तदानविधि कही जा रही है अथवा जो आचीर्ण अतिचार हो सकता है। है उसकी आलोचना करने पर प्रस्थापना प्रायश्चित्त आता है। ९८३/१. भावे अपसत्थ-पसत्थगं च दुविधं तु होति णायव्वं । यह संबंध है।
अविरय-पमायमेव य, अपसत्थं होति दुविधं तु।। ९७९. दो साहम्मिय छब्बारसेव लिंगम्मि होति चउभंगो। ९८३/२. णाणे णोणाणे या, होति पसत्थम्मि ताव दुविधं तु। चत्तारि विहारम्मि उ, दुविहो भावम्मि भेदो उ॥
णाणे खओवसमितं, खइयं च तहा मुणेयव्वं ॥ द्विक शब्द के छह निक्षेप और साधर्मिक शब्द के बारह ९८३/३. णोणाणे विय दिट्ठी, निक्षेप हैं। लिंग की चतुभंगी, विहार शब्द के चार निक्षेप तथा
चरणे एक्केक्कयं तिधा मुणेयव्वं । भाव के दो भेद हैं।
मीसं तधोवसमितं, ९८०. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य होति बोधव्वे।
खइयं च तधा मुणेयव्वं ।। भावे य दुगे एसो, निक्खेवो छव्विहो होति। ९८३/४. णाणादीसुं तीसु वि,सट्ठाणे णत्थि खइय अतिचारो। द्विक शब्द के छह निक्षेप-नामद्विक, स्थापनाद्विक,
उवसामिए वि दोसु, दिट्ठी चरणे य सट्ठाणे॥ द्रव्यद्विक, क्षेत्रद्विक, कालद्विक तथा भावद्विक।
भावद्विक के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। अविरत ९८१. चित्तमचित्तं एक्केक्कगस्स जे जत्तिया उ दुगभेदा। और प्रमाद-ये अप्रशस्त भावद्विक के दो प्रकार हैं। प्रशस्त
खेत्ते दुपदेसादी, दुसमयमादी उ कालम्मि। भावद्धिक के दो प्रकार हैं-ज्ञान और नोज्ञान। ज्ञान के दो प्रकार
द्रव्यद्विक के दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त। इनमें हैं-क्षायोपशमिक और क्षायिक। नोज्ञान द्विक के दो प्रकार प्रत्येक के जितने द्विकभेद होते हैं वे सभी ग्राह्य हैं। क्षेत्रद्विक हैं-दृष्टि और चारित्र। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार जैसे- द्विप्रदेशावगाढ़ क्षेत्र आदि। कालद्विक जैसे-द्विसमयादिक हैं-क्षायोपशमिक, औपशमिक तथा क्षायिक। काल।
क्षायिक ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के स्वस्थान में कोई ९८२. भावे पासत्थमियरं, होति पसत्थं तु णाणि-णोणाणे। अतिचार नहीं होता। औपशमिक भाव के दो में अर्थात दर्शन और
केवलियछउम णाणे, णोणाणे दिट्ठि-चरणे य॥ चारित्र में स्वस्थान में अतिचार नहीं होता।
भावद्धिक के दो प्रकार हैं--प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रशस्त (इन चारों गाथाओं का कथन पूर्ववर्ती गाथाओं में आ चुका दो प्रकार का है-ज्ञान और नोज्ञान। ज्ञान विषयक द्विक-कैवलिक है।)
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