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________________ अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिये थे। उन सबको वहां के देवता ने सुना था। इसलिए आलोचना करने वाला मुनि वहां जाए, तेले की तपस्या कर उस सम्यक्त्वभावित देवता की आराधना करे। देवता के प्रत्यक्ष होने पर उसके समक्ष आलोचना करे। वह यथार्ह प्रायश्चित्त देगा। यदि कोई अन्य देव वहां उत्पन्न हो गया हो तो वह कहेगा-मैं महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर को पूछकर प्रायश्चित्त दूंगा। इन सबके अभाव में प्रायश्चित्तदान विधि का ज्ञाता आलोचक अरिहंत और सिद्धों को वंदना कर स्वयं आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण कर ले। इस प्रकार प्रायश्चित्त लेने वाला भी शुद्ध ही है। ९७६. सोधीकरणा दिट्ठा, गुणसिलमादीसु जाहि साधूणं। तो देंति विसोधीओ, पच्चुप्पण्णा व पुच्छंति॥ गुणशील आदि उद्यानों में जिन देवताओं ने तीर्थंकर तथा गणधरों को प्रायश्चित्ताह मुनियों को दिए जाने वाले शोधिकरण अर्थात् प्रायश्चित्तों को देखा है, सुना है, वे देवता स्वयं प्रायश्चित्त का कथन करते हैं और जो देवता अभी उत्पन्न हुए हैं वे महाविदेह में तीर्थंकरों को पूछकर साधुओं को प्रायश्चित्त का कथन करते पहला उद्देशक समाप्त पहला उद्देशक समक्ष आलोचना करे। उनमें सामायिक का आरोपण और लिंग समर्पण नहीं करना चाहिए। ९७२. आहार-उवधि-सेज्जा, एसणमादीसु होति जतितव्वं । अणुमोयण कारावण, सिक्खत्ति पयम्मि सो सुद्धो॥ पूर्ववर्ती श्लोक (९७०) में 'गवेसणा जाव सुहदुक्खे' कहा। गया, उसकी व्याख्या इस प्रकार है। वह आहार, उपधि और शय्या की एषणा में यतनावान् रहे। यदि उस आलोचनाह के लिए कोई आहार आदि का उत्पादन करता है तो उसका अनुमोदन करना चाहिए तथा शुद्ध आहार आदि न मिलने पर श्रावकों से उसका यतनापूर्वक उत्पादन करवाना चाहिए। वह अपवाद पद में उसके पास आसेवन शिक्षा ग्रहण करता हुआ शुद्ध है। ९७३. चोदति से परिवार, अकरेमाणे भणाति वा सड्ढे। अव्वोच्छित्तिकरस्स उ, सुतभत्तीए कुणह पूयं ।। सबसे पहले वह आलोचनाह के परिवारजनों को जो वैयावृत्त्य आदि नहीं करते उनको प्रेरित करता है। यदि वे नहीं करते और स्वयं को शुद्ध आहार आदि की प्राप्ति नहीं होती है तो वह श्रावकों को कहकर उसका संपादन कराता है। वह लोगों को कहता है-प्रवचन की अव्यवच्छित्ति करने के कारण उस आलोचनाह मुनि की, श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर आहार संपादन आदि से उसकी पूजा करें। ९७४. दुविधाऽसतीय तेसिं, आहारादी करेति सव्वं से। पणहाणीय जयंतो, अत्तट्ठाए वि एमेव॥ परिवार का अभाव दो प्रकार का होता है-विद्यमान अभाव और अविद्यमान अभाव। इन दोनों का अभाव होने पर वह आलोचक आलोचनाह को कल्पिक अथवा अकल्पिक आहार आदि सभी का यतनापूर्वक संपादन करता है। वह पंचकहानि से यतमान अर्थात् अपरिपूर्ण मासिक प्रतिसेवना में गुरु-लघु का चिंतन कर, पांच दिन-रात अथवा दस दिन-रात की परिहानि वाले प्रायश्चित्त स्थान की प्रतिसेवना यतनापूर्वक करता हुआ वैयावृत्त्य में संलग्न रहता है। तथा कारण के समुत्पन्न होने पर स्वयं के लिए भी पंचकहानि से यतनावान् रहता है। ९७४/१.तेसिं पि य असतीए, ताधे आलोए देवयसगासे। कितिकम्मनिसेज्जविधी, तधाति सामाइयं णत्थि। उन सबके अभाव में आलोचक देवता के समक्ष आलोचना करे। इस प्रसंग में न कृतिकर्म की विधि, न निषद्या की विधि तथा न सामायिक समर्पण की विधि विहित है। ९७५. कोरंटगं जधा भावितट्ठमं पुच्छिऊण वा अन्नं । असति अरिहंत-सिद्धे, जाणतो सुद्धो जा चेव।। भरुकच्छ में कोरंटक उद्यान में अर्हत् मुनि सुव्रत अनेक बार पधारे थे। वहां तीर्थंकर तथा गणधरों ने अनेक मुनियों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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