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सानुवाद व्यवहारभाष्य
इन गुणों का निधान है, इन गुणों का प्रवर्तक है, ज्ञान-दर्शन और आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। उनके अभाव में चारित्र में सतत उपयोग रखता है, जो संग्रहकुशल और उपग्रह क्रमशः उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर य गणावच्छेदक के पास (उपकार) कुशल है, जो शिष्य तप, संयम और नियम इनमें से करनी चाहिए। गच्छ में आचार्य आदि पंचक का अभाव हो तो जो जिसके योग्य हो उसमें उसको प्रवर्तित करता है, असमर्थ का बाहर भी इसी क्रम से आचोलना करनी चाहिए। इस क्रम का निवर्तन करता है तथा गणतप्ति में प्रवृत्त रहता है। ये प्रवर्तक के व्यत्यय करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि गुण हैं।
अगीतार्थ के पास आलोचना करता है तो चार गुरुमास का ९६०. संविग्गो मद्दवितो, पियधम्मो नाण-दसण-चरित्ते। प्रायश्चित्त है।
जे अट्ठ परिहायति, ते सारेतो हवति थेरो॥ ९६६. संविग्गे गीयत्थे, असती पासत्थमादि सारूवी। स्थविर वह होता है जो संविग्न, मार्दवित तथा प्रियधर्मा है।
गीतत्थे अब्भुट्ठित,असति मग्गणं व देसम्मि।। जो शिष्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र के उपादेय अर्थ-अनुष्ठानों में कमी ९६७. खेत्ततो दुवि मग्गेज्जा, जा चउत्थ सत्त जोयणसताई। कर रहा हो, उसको उन अनुष्ठानों में स्थिर करता है वह स्थविर बारससमा उ कालतो उक्कोसेणं विमग्गेज्जा। होता है।
९६८. एवं पि विमग्गंतो, जति न लभेज्जा तु गीत-संविग्गं। ९६१. थिरकरणा पुण थेरो, पवत्ति वावारितेसु अत्थेसु। पासत्थादीसु ततो, विगडे अणवद्वितेसुं पि॥
जो जत्थ सीदति जती, संतबलो तं पचोदेति॥ ९६९. तस्सऽसति सिद्धपुत्ते, पच्छकडे चेव होतिऽगीयत्थे। प्रवर्तक के द्वारा प्रवर्तित क्रियाओं को संपादित करने में
आवकधाए लिंगे, तिण्हा वि अणिच्छिइत्तिरियं ।। शक्ति होते हुए भी जो साधु उनको करने में खिन्न होता है, उसको वह आलोचना संविग्न, गीतार्थ के पास करे। उसके अभाव स्थविर अत्यंत प्रेरित करता है, शिक्षा देता है। स्थिर करने के में पार्श्वस्थ गीतार्थ तथा सारूपी गीतार्थ के पास करे। जिसके कारण ही वह स्थविर कहलाता है।
पास आलोचना करे उनको अभ्युत्थापन-वंदनक दे। इन सबके ९६२. उद्धावणा पधावण, खेत्तोवधिमग्गणासु अविसादी। न मिलने पर देश में उनकी मार्गणा-गवेषणा करे। क्षेत्रतः दो,
सुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्था एरिसा होति॥ चार, सात योजन शत तक गवेषणा करे। कालतः उत्कृष्टरूप में
गीतार्थ का स्वरूप--जो संघकार्य के लिए उद्धावन-सदा १२ वर्षों तक उन आलोचना) की मार्गणा करे। इतनी गवेषणा तत्पर तथा प्रधावन-कार्य को शीघ्र संपादित करने में संलग्न करने पर भी यदि वे प्राप्त न हों तो गीतार्थ संविग्न तथा गीतार्थ रहता है, जो क्षेत्र की मार्गणा (क्षेत्र प्रत्युपेक्षा) तथा उपधि की पार्श्वस्थ आदि के पास तथा अनवस्थित के पास आलोचना करे। मार्गणा (उपधि की प्राप्ति) में विषाद का अनुभव नहीं करता, जो । उसकी प्राप्ति न होने पर सिद्धपुत्र, पश्चात्कृत तथा अगीतार्थ को सूत्र, अर्थ और तदुभय का ज्ञाता होता है, वह गीतार्थ है। यावज्जीवन लिंग धारण करा कर आलोचना करे। यदि वे ९६३. जध पंचकपरिहीणं, रज्जं डमर-भय-चोर-उव्विग्गं। यावज्जीवन लिंग धारण करना न चाहे तो इत्वरिक लिंग धारण
उग्गहितसगडपिडगं, परंपरं वच्चते सामि।। कराकर आलोचना करे। ९६४. इय पंचकपरिहीणे गच्छे आवन्नकारणे साधू। ९७०. असतीय लिंगकरणं, सामाइयइत्तरं च कितिकम्म।
आलोयणमलभंतो, परंपरं वच्चते सिद्धे॥ तत्थेव य सुद्धतवो, सुह-दुक्ख गवसती सो वि॥
जैसे राजा आदि पंचक से परिहीन राज्य में डमर-स्वदेश पार्श्वस्थ आदि का अभ्युत्थान न होने पर पश्चात्कृत में में उत्पन्न विप्लव, भय-शत्रुसेना से उत्पन्न भय तथा चोरों के इत्वर सामायिक का आरोपण कर तथा इत्वरकालिक लिंग समर्पित उपद्रव से उद्विग्न होकर वहां रहने वाला व्यक्ति शकट-पिटक कर, कृतिकर्म कर उसके पास आचोलना करनी चाहिए। वहीं (बोरिया बिस्तर) को बांधकर अपने परंपरक स्वामी के पास प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त शुद्ध तप का वहन करता हुआ, आलोचना चला जाता है, वैसे ही आचार्य आदि पंचक से परिहीन गच्छ से देने वाले के सुख-दुख की गवेषणा करता रहता है। प्रायश्चित्त प्राप्त साधु आलोचना प्राप्त न करता हुआ पूर्वोक्त ९७१. लिंगकरणं निसेज्जा, कितिकम्ममणिच्छतो पणामो य। आयुव्याघात आदि कारणों से प्रेरित होकर परंपर अर्थात् एमेव देवयाए, नवरं सामाइयं मोत्तुं। अन्यसांभोगिक आदि के पास क्रमशः जाए यावत् सिद्धपुत्र के पश्चात्कृत में इत्वरकालिक सामायिक का आरोपण कर, पास जाए।
इत्वर कालिक लिंग समर्पित कर, निषिद्या की रचना कर फिर ९६५. आयरिए आलोयण, पंचण्हं असति गच्छबहिया जो। वंदनक दिया जाता है। यदि वह वंदनक की वांछा नहीं करता तो
वोच्चत्थे चउलहुगा, अगीयत्थे होति चउगुरुगा॥ उसको प्रणाममात्र कर आलोचना करे। इसी प्रकार देवता के
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