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________________ १९२ २०२०. मोहेण पुव्यमणितं, रोगेण करैतिमाए जतणाए । आयरियकुलगणे वा, संघे व कमेण पुव्वुत्तं ॥ मोहविषयक तथ्य पहले कहे जा चुके हैं। यदि रोग से अवधावन का प्रसंग हो तो पूर्वोक्त विधि से औषध प्राप्त करे तथा इस कथ्यमान यतना से उसका निवारण करना होता है । यतना यह है प्रासुक औषध भेषन प्राप्त हो तो उससे और यदि प्राप्त न हो तो अप्रासुक सामग्री से भी उसकी चिकित्सा करनी होती है। चिकित्सा कौन करवाएं? इसका क्रम यह है- आचार्य, कुल, गण और संघ इस परिपाटी से चिकित्सा करवाएं। २०२१. छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराणि तिन्नि भवे । संवच्छरं गणो खलु, जावज्जीवं भवे संघो ॥ आचार्य छह मास पर्यंत उस रोगी की चिकित्सा करवाए। यदि रोग शांत न हो तो 'कुल' तीन वर्ष तक चिकित्सा का भार संभाले, फिर 'गण' एक संवत्सर तक चिकित्सा कराए। फिर भी यदि रोग उपशांत न हो तो 'संघ' यावज्जीवन उसकी चिकित्सा कराए। (जो मुनि भक्तप्रत्याख्यान नहीं कर सकता उसके लिए यह विधि है ।) २०२२. अधवा बितियादेसो, गुरुवसमे भिक्खुमादि तेगिच्छं । जहरिह बारसवासा, तिछक्कमासा असुद्धेणं ॥ अथवा दूसरा आदेश (मत) यह है गुरु उस रोगी मुनि की यावज्जीवन तक, वृषभ बारह वर्षों तक तथा भिक्षु अठारह महीनों तक चिकित्सा कराए। चिकित्सा में प्राथमिकता प्रासुक सामग्री को देनी चाहिए। यदि वह उपलब्ध न हो तो अशुद्ध अर्थात् अप्रासुक सामग्री का भी उपयोग किया जा सकता है। २०२३. पयत्तेणोसघं से करेंति सुद्धेण उम्गमादीहिं । पणहाणीय अलंभे, धम्मकहाहिं धम्मका निमित्तेहिं ॥ रोगी की औषध चिकित्सा प्रयत्नपूर्वक उद्गमादि दोषों से शुद्ध वस्तुजात से करनी चाहिए। शुद्ध की उपलब्धि न होने पर पांच दिन रात की परिहानि' से यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त वाले अशुद्ध उपाय से भी चिकित्सा करनी चाहिए। इससे भी यदि औषध प्राप्त न हो तो धर्मकथा से अथवा निमित्त के प्रयोग से भी औषध की प्राप्ति करनी चाहिए। सानुवाद व्यवहारभाष्य औषध प्राप्त करे।) स्वलिंग से प्रवेश करने पर प्रवचन का उड्डाह होता है। २०२५. पणगावी जा गुरुगा, अलब्धमाणे बहिं तु पाउगे। बहिठित सालगवेसण, तत्थ पभुस्साणुसद्वादी ॥ पंचकादि प्रायश्चित्त की परिहानि से यावत् चार गुरुमास प्रायश्चित्तार्ह प्रायोग्य औषध यदि बाहर प्राप्त न हो तो आरोग्यशाला के बाहर रहकर औषध की गवेषणा करे। यदि प्राप्त न हो तो उस शाला के स्वामी पर अनुशासन (धर्मकथा) आदि का प्रयोग करे। २०२६. असती अच्चियलिंगे, जदि पडिवत्तियकुसला, भावेति नियल्लगर्स से ॥ अन्य उपायों से औषध की प्राप्ति न हो तो अनाथालय के स्वामी द्वारा पूजित वेष में भीतर प्रवेश करे। प्रतिभावान् उत्तर देने में समर्थ वृषभ मुनि अपने लिंग में स्वामी के पास जाकर बातचीत करते हैं और अन्यवेश में प्रविष्ट उस मुनि से भी वार्तालाप करते हैं। प्रतिपत्तिकुशल परप्रतिपादनदक्ष वे वृषभ उस शाला के स्वामी के साथ आत्मीयता स्थापित करते हैं। वहां भी वे सैद्धांतिक रूप में उस गृहीतलिंग मुनि के साथ इस प्रकार बात करते हैं कि वह शाला- स्वामी आकृष्ट हो जाता है। २०२७. अधव पडिवत्तिकुसला, तो तेण समं करेंति उल्लावं । पभवंतो वि य सो वी, वसमे उ अणुत्तरीकुणति ॥ अथवा वे प्रतिपत्तिकुशल मुनि शालास्वामी के साथ परस्पर उल्लाप करते हैं और गृहीतलिंग वाला मुनि भी उसी प्रकार उसको भावित करता है। वह वृषभों से उत्तर सुनना चाहता है । इस प्रकार वह शाला - स्वामी निरुत्तर होकर कहता है२०२८. तो भणति कलहमित्ता, तुम्मे वहेज्जह मे उदंतं ति । 1 ते वी य पडिसुणंती, एवं एगाय छम्मासा ॥ आप मेरे कलहमित्र हैं। मेरे कथन को प्रार्थना को आप वहन करें, स्वीकार करें। वृषभ उसकी प्रार्थना स्वीकार कर लेते हैं। शाला स्वामी के साथ आत्मीयता हो जाती है औषधं प्राप्ति | सुलभ हो जाती है। इस प्रकार एक अनाथशाला से छहमास तक चिकित्सा हो सकती है। २०२९. छम्मासा छम्मासा, बितिए ततियाय एव सालाए । काऊ अट्ठारस ऊ, अपउण ताहे विवेगो उ ॥ इसी प्रकार छह-छहमास की चिकित्सा दूसरी और तीसरी अनाथशाला से कराने पर १८ मास तक चिकित्सा करा ली जाती है। यदि इतने पर भी रोगी स्वस्थ नहीं होता है तो रोगी को २०२४. तह वि न लभे असुद्धं, बहिठिय सालाहिवाणुसद्वादी । नेच्छंते बहिदाणं, सलिंगविसणेण उड्डाहो ॥ इन उपायों से अशुद्ध-अकल्प्य औषध भी प्राप्त न हो तो अनाथशाला या आरोग्यशाला के बाहर रहकर औषध प्राप्त करे। न मिलने पर अनाथशाला आदि के स्वामी पर अनुशासन कर औषध की याचना करे। यदि वे अहिः स्थित व्यक्तियों को औषधदान न करे तो (उनके पूजनीय साधु के वेश में प्रवेश कर १. कलहानंतर (सिद्धांतोल्लापे पराजितः सन्) यानि जातानि मित्रानि तानि कलहमित्राणि । ( वृत्ति) For Private & Personal Use Only Jain Education International पविसण पतिभाणवंत वसभाओ। www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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