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________________ १७४ सानुवाद व्यवहारभाष्य १८१२. वंदण पुच्छा कहणं, अमुगं देसं वयामि पव्वइउं। १८१७. अणूवदेसम्मि वियारभूमी, नत्थि तहि चेइयाई, दंसणसोधी जतो हुज्जा॥ विहारखेत्ताणि य तत्थ नत्थी। वह प्रस्थित व्यक्ति उस मुनि को वंदना करता है। तब वह साहूसु आसण्णठितेसु तुज्झं, मुनि पूछता है-तुम किस देश में जाओगे? तब वह कहता है-मैं को दूरमग्गेण मडप्फरो ते॥ प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए अमुक देश में जा रहा हूं। तब मुनि जहां तुम जा रहे हो वह अनूपदेश है, सजल देश है। वहां कहता है-वहां चैत्य नहीं हैं, जिनसे दर्शनशोधि हो सके। विचारभूमी नहीं है। वहां विहारयोग्य क्षेत्र भी नहीं है। यहां साधु १८१३. पूया उ दटुं जगबंधवाणं, तुम्हारे निकटस्थ हैं, फिर दूर मार्ग से जाने का तुम्हारा यह । साहू विचित्ता समुवैति तत्थ। मडप्फर-गमनोत्साह क्यों है? चागं च दद्दूण उवासगाणं, १८१८. वासासुं अमणुण्णा, असमत्ता जे ठिता भवे वीसुं। सेहस्स वी थिरइ धम्मसद्धा॥ तेसिं न होति खेत्तं, अह पुण समणुण्णय करेंति॥ उसने पूछा-चैत्य से दर्शनशोधि कैसे होती है? मुनि ने। १८१९. तो तेसिं होति खेत्तं,को उपभू तेसि जो उ रायणिओ। कहा-चैत्य में जगद्बांधव तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की पूजा को __ लाभो पुण जो तत्था, सो सव्वेसिं तु सामण्णो। देखने के लिए विचित्र-भव्य, भव्यतर साधु आते हैं। मूर्ति को वर्षाकाल में अमनोज्ञ और असमाप्तकल्प वाले मुनि एक ही देखकर तथा उपासकों के त्याग को देखकर, दूसरों की तो बात क्षेत्र में पृथक्-पृथक रहते हैं। उनके लिए वह क्षेत्र आभाव्य नहीं कही क्या, शैक्ष की भी धर्मश्रद्धा होती है। होता। इसलिए वे परस्पर समनोज्ञता और उपसंपदा स्वीकार १८१४. न संति साहू तहियं विवित्ता, करते हैं। तब वह क्षेत्र उनके लिए आभाव्य हो जाता है। जो ओसण्णकिण्णो खलु सो कुदेसो। रात्निक मुनि है, वही उनका प्रभु-स्वामी होता है। उस क्षेत्र में जो संसग्गिहज्जम्मि इमम्मि लोए, लाभ होता है वह सामान्यरूप से सबका होता है। १८२०. अहव जइ वीसु वीसुं, सा भावणा तुज्झ वि मा भवेज्जा। ठिता उ असमत्तकप्पिया होज्जा। वह कहता है-वहां रहने वाले साधु एकांततः संविग्न नहीं अण्णो समत्तकप्पी, हैं। वह कुदेश अवसन्न साधुओं से आकीर्ण है। यह लोक (प्रदेश) एज्जाही तस्स तं खेत्तं॥ संसर्गीहार्य है-वहां रहने वाला संसर्ग से वैसा ही बन जाता है। अथवा जहां असमाप्तकल्पिक मुनि पृथक्-पृथक् रहते हैं तुम वहां जाओगे, वहां तुम्हारी भी अवसन्न भावना न हो जाए वहां यदि कोई समाप्तकल्पी मुनि का आगमन होता है तो वह क्षेत्र इसलिए वहां मत जाओ। उसका हो जाता है, पूर्व स्थित मुनियों का नहीं। १८१५. सेज्जा न संती अहवेसणिज्जा १८२१. अहवा दोण्णि व तिण्णि व,समगं पत्ता समत्तकप्पीउ। इत्थीपसू-पंडगमादिकिण्णा। . सव्वेसिं तो तेसिं,तं खेत्तं होति साधारणं ।। आउत्थमादीसु य तासु निच्चं, अथवा वहां यदि दो-तीन समाप्तकल्पी एक साथ आ जाते ठायंतगाणं चरणं न सुज्झे। हैं तो वह क्षेत्र उन सभी के लिए सामान्यरूप से आभाव्य हो वहां वसतियां नहीं हैं अथवा एषणीय वसतियां प्राप्त नहीं । जाता है। होतीं। जो हैं वे भी स्त्री, पशु, पंडक आदि से आकीर्ण हैं। स्वयं के १८२२. अपुण्णकप्पो व दुवे तओ वा, लिए कृत उन वसतियों में नित्य रहने पर चरण की शुद्धि नहीं जं काल कुज्जा समणुण्णयं तु। रहती। तक्कालपत्तो य समत्तकप्पो, १८१६. वेज्जा तहिं नत्थि तहोसहाइं, साधारणं तं पि हु तेसि खेत्तं ।। लोगो य पाएण सपच्चणीओ। दो, तीन अपूर्णकल्प वाले मुनि जिस समय में समनोज्ञता दाणादि सण्णी य तहिं न संती, स्वीकार कर लेते हैं, उस समय यदि कोई समाप्त-कल्पी मुनि वहां आता है तो सभी के लिए सामान्यरूप से वह क्षेत्र आभाव्य वहां न वैद्य हैं और न औषधियां हैं। वहां के प्रायः लोग हो जाता है। प्रत्यनीक-विरोधी हैं। वहां दान आदि देने वाले संज्ञी- श्रावक १८२३. साधारणट्ठितिाणं, जो भासति तस्स तं भवति खेत्तं। नहीं हैं। वह प्रदेश कुत्तों और चौरों से व्याप्त है। वारग तद्दिण पोरिसि, मुहुत्त भासे उ जो ताहे ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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