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________________ चौथा उद्देशक १७५ उस क्षेत्र में सामान्यरूप से स्थित मुनियों में से जो मुनि १८३०. एमेव मंडलीय वि, पुव्वाहिय नट्ठ धम्मकह-वादे। सूत्र और अर्थ की वाचना देता है, वह क्षेत्र उसके लिए आभाव्य अधव पइण्णग सुत्ते, अधिज्जमाणे बहुसुते वि॥ होता है। यदि वे वारी वारी से वाचना देते हों तो जिस दिन इसी प्रकार मंडलिका में भी ज्ञातव्य है। मंडलिका कहां पौरुषी अथवा मुहूर्त भर के लिए वाचना देते हैं तो उतने समय होती है-पूर्व अधीत श्रुत के विस्मृत हो जाने पर धर्मकथा में, तक वह क्षेत्र उनका होता है। वादशास्त्रों में अथवा बहुश्रुत द्वारा प्रकीर्णकश्रुत अध्ययन में। १८२४. आवलिया मंडलिया, घोडग कंडूइतए व भासेज्जा। १८३१. छिण्णाछिण्णविसेसो, आवलियाए उ अंतए ठाति। सुत्तं भासति सामाइयादि जा अट्ठसीतिं तु॥ मंडलीय सट्ठाणं, सच्चित्तादीसु संकमति।। सूत्रार्थ की वाचना के तीन प्रकार हैं आवलिका और मंडलिका में विशेष यह है कि आवलिका १. आवलिका-विच्छिन्नरूप से एकांत में होने वाली छिन्न होती है और मंडलिका अच्छिन्न । आवलिका में उपाध्याय मंडली। अंतर्-विविक्त प्रदेश में बैठता है और मंडलिका में वह स्वस्थान २. मंडलिका-स्वस्थान में होने वाली। पर बैठता है। सचित्त आदि का लाभ पाठयिता में संक्रामित हो ३. घोटककंडूयित-वारी-वारी से परस्पर पृच्छा। जाता है। सामयिक (आवश्यक) आदि सूत्र से लेकर दृष्टिवादगत १८३२. दोण्हं तु संजताणं, घोडगकंडूइयं करेंताणं। अस्सी सूत्रों तक वाचना देना। (इसमें उत्तरोत्तर वाचनाचार्य का जो जाहे जं पुच्छति, सो ताधि पडिच्छओ तस्स॥ आभाव्य क्षेत्र होता है।) घोटककंडूयित (की भांति) करने वाले दो संयत मुनि जो १८२५. सुत्ते जहुत्तरं खलु, बलिया जा होति दिट्ठिवाओ त्ति। जब जिस मुनि को प्रश्न करता है तब वह उसका प्रतीच्छक हो __ अत्थे वि होति एवं, छेदसुतत्थं नवरि मोत्तुं॥ जाता है। दूसरा प्रतीच्छ्य है। जब तक उसका प्रतीच्छ्य होता है सूत्रों की दृष्टिवाद तक यथोत्तर बलिष्ठता होती है वैसे ही तब तक उसका आभवन होता है। अर्थ की यथोत्तर बलिष्ठता होती है, छेदसूत्रार्थ को छोड़कर। १८३३. एवं ताव समत्ते, कप्पे भणितो विधी उ जो एस। अर्थात् अर्थाचार्यों में छेदसूत्रार्थाचार्य प्रज्ञावान होता है। एत्तो समत्तकप्पो, वोच्छामि विधिं समासेण ।। १८२६. एमेव मीसगम्मि वि, सुत्ताओ बलवगो पगासो उ। यह विधि असमाप्त कल्प के लिए कही गई है। आगे संक्षेप पुव्वगतं खलु बलियं, हेट्ठिल्लत्था किमु सुयातो॥ में समाप्तकल्प की विधि बताऊंगा। इसी प्रकार मिश्रक अर्थात् सूत्रार्थरूप में सूत्र से बलवान् १८३४. गणिआयरियाणं तो, खेत्तम्मि ठिताण दोसु गामेसु। होता है प्रकाश-अर्थ का प्रकाश। यदि पूर्वगत अपने से नीचे वाले वासासु होति खेत्तं, निस्संचारेण बाहिरतो॥ आगमों के अर्थ से बलवान् है तो फिर वह उनके सूत्रों से बलवान् गणी और आचार्य पृथक्-पृथक् दो गांवों के मध्यक्षेत्र में क्यों नहीं होगा? होगा ही। स्थित हैं। वर्षाऋतु में वह क्षेत्र उनका आभवन क्षेत्र है, बाहर १८२७. परिकम्मेहि य अत्था, सुत्तेहि य जे य सूइया तेसिं। निःसंचार होने के कारण। ___ होति विभासा उवरिं, पुव्वगतं तेण बलियं तु॥ १८३५. वासासु समत्ताणं, उग्गह एगदुगपिंडिताणं पि। परिकर्म के सूत्रों से जो अर्थ सूचित होते हैं उनकी विभाषा साधारणं तु केसिं, वोच्छं दुविहं च पच्छकडं। अर्थात् विवरण पूर्यों में होता है। इसलिए पूर्वगत बलीयान् है। वर्षाकाल में एक में पिंडित अथवा दो-तीन में पिंडित १८२८. तित्थगरत्थाणं खलु, अत्थो सुत्तं तु गणहरत्थाणं। समाप्तकल्प वालों का अवग्रह होता है। साधारण शैक्ष का जो __ अत्थेण य वंजिज्जति, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं॥ आभवन होता है वह मैं कहूंगा तथा दो प्रकार के पश्चात्कृत के अर्थ तीर्थंकरस्थान हैं अर्थात् तीर्थंकरों द्वारा अभिहित हैं। विषय में बताऊंगा। सूत्र गणधरस्थान हैं अर्थात् गणधरों द्वारा संदृब्ध हैं। अर्थ से सूत्र १८३६. अक्खेत्त जस्सुवट्ठति, खेत्ते व समट्ठिताण साधारे। की अभिव्यंजना होती है, इसलिए सूत्र से अर्थ बलवान होता है। वायंतियववहारे, कयम्मि जो जस्सुवट्ठाति॥ १८२९. जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स। अक्षेत्र अर्थात् प्रतिमास्नान आदि के प्रयोजन से एकत्रित तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ।। मुनियों में से जो शैक्ष जिसके पास उपसंपन्न होता है, वह उसका स्खलित चारित्र वाले मुनि की शोधि छेदसूत्रार्थ से होती होता है। अथवा किसी क्षेत्र में एक साथ समाप्सकल्प मुनि स्थित है, इसलिए छेदसूत्रार्थ पूर्वगत को छोड़कर शेष सभी सूत्रार्थों से हैं, उस सामान्य क्षेत्र में जो परस्पर बातचीत करके प्रविष्ट हुए हैं, बलीयान् है। (यह सारा कथन आवलिका के अनुसार किया गया है।) उस स्थिति में जो शैक्ष जिसके पास उपसंपन्न होता है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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