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वह मुनि जब आलोचना के लिए उपस्थित होता है तब आचार्य को देखना चाहिए कि उसका चारित्र सावशेष है अथवा नहीं। यदि नहीं है तो उसको मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए और यदि है तो उसे तप अथवा छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए और यदि है तो उसे स्तोक प्रायश्चित्त आता हो और वह साधुओं को प्रतितर्पित करता हो तो, वह उसी से शुद्ध हो जाता है। उसे प्रायश्चित्त-मुक्त कर दिया जाता है। ८६०. उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो।
एसो उ अधाछंदो, इच्छाछंदो त्ति एगट्ठा।
जो उत्सूत्र का आचरण करता है और दूसरों को उत्सूत्र की प्ररूपणा करता है तो वह यथाच्छंद कहलाता है। इच्छा और छंद एकार्थक शब्द हैं। ८६१. उस्सुत्तणुवदिटुं, सच्छंदविगप्पियं अणणुवादी।
परतत्तिपवित्ते तिंतिणे य इणमो अहाछंदो॥
जो तीर्थंकर आदि द्वारा अनुपदिष्ट है, जो अपनी मति से प्रकल्पित है, जो सिद्धांत के साथ घटित नहीं होता वह उत्सूत्र कहलाता है। जो उत्सूत्र का आचरण और प्ररूपण करता है वही यथाच्छंद नहीं होता, किंतु जो परतप्तिप्रवृत्त अर्थात् गृहस्थ के कार्यों में प्रवृत्त होता है, तनतनाहट करता रहता है, वह भी यथाच्छंद होता है। ८६२. सच्छंदमतिविगप्पिय, किंची सुहसायविगतिपडिबद्धो।
तिहि गारवेहि मज्जति, तं जाणाहि य अधाछंदं॥
जो लोलुपता के कारण अपनी स्वच्छंद मति से कुछ प्ररूपणा कर किंचित् सुख आस्वादन के लिए विकृति (विगय) में प्रतिबद्ध होकर, तीन गौरवों-ऋद्धि, रस और सात-में मद करता है, उसको भी यथाच्छंद जानना चाहिए। ८६३. अहछंदस्स परूवण, उस्सुत्ता दुविध होति नायव्वा।
चरणेसु गतीसुं जा, तत्थ य चरणे इमा होति॥ ८६४. पडिलेहण मुहपोत्तिय रयहरण-निसेज्ज-मत्तए पट्टे।
पडलाइ चोल उण्णादसिया पडिलेहणा पोत्ते॥
यथाच्छंद मुनि की उत्सूत्र प्ररूपणा दो प्रकार की जाननी चाहिए-चारित्र विषयक तथा गति विषयक। चारित्र विषयक प्ररूपणा इस प्रकार है-जो मुखवस्त्रिका है वही प्रतिलेखनीया- पात्रकेसरिका है, रजोहरण की दो निषद्याओं के बदले एक ही निषधा हो, पात्र और मात्रक दो क्यों, एक ही हो अर्थात् जो पात्र है वही मात्रक हो और जो मात्रक है वही पात्र हो, दिन में जो चोलपट्ट हो रात्रि में वही संस्तारक का उत्तरपट्ट हो, चोलपट्ट ही (दुगुना, तिगुना कर) पटलक के रूप में काम लिया जाए, रजोहरण की दशाएं ऊन से क्यों सूत की बनाई जाएं तथा प्रतिलेखना-पोत अर्थात् प्रतिलेखना करते समय एक कपड़ा बिछाकर उस पर
सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रतिलेखित सारे उपकरण रखे, फिर उपाश्रय के बाहर जाकर प्रतिलेखना करे। ८६५. दंतच्छिन्नमलित्तं, हरियठित पमज्जणा य णितस्स।
अणुवादि अणणुवादी, परूवणा चरणमादीसु॥
हाथ-पैर के नखों को दांतों से काटे, पात्र पर लेप न करे, हरियाली पर प्रतिष्ठित भक्तपान ग्राह्य है, यदि आच्छन्न प्रदेश में प्रमार्जना की जाती है तो बाहर खुले आकाश में भी प्रमार्जन करे। इस प्रकार यथाच्छंद मुनि चरणविषयक अनुपातिनी और अननुपातिनी प्ररूपणा करता है। ८६६. अणुवाति त्ती णज्जति, जुत्तीपडितं तु भासए एसो।
जं पुण सुत्तावेयं, तं होही अणणुवाइ ति॥
यथाच्छंद जब कहता है तब यदि यह प्रतीत होता है कि यह युक्तिसंगत बात कह रहा है तो वह अनुपातिनी प्ररूपणा है और जो सूत्र के विपरीत होती है वह अननुपातिनी प्ररूपणा है। ८६७. सागारियादि पलियंकनिसेज्जासेवणा य गिहिमत्ते।
निग्गंथिचिट्ठणादी, पडिसेहो मासकप्पस्स।
सागारिक आदि अर्थात् शय्यातरपिंड तथा स्थापनाकुल आदि का पिंड ग्रहण करना, पर्यंक तथा गृहनिषद्या का सेवन करना, गृहस्थ के पात्र में भोजन करना तथा निर्ग्रन्थिनी के उपाश्रय में बैठना-उठना-इन सब प्रवृत्तियों में कोई दोष नहीं है। मासकल्प का प्रतिषेध भी व्यर्थ है-यह यथाच्छंद की प्ररूपणा का अंश है। ८६८. चारे वेरज्जे या, पढमसमोसरण तह य नितिएसु।
सुण्णे अकप्पिए या, अण्णाउंछे य संभोए।
यथाच्छंद कहता है-चतुर्मास में जब वर्षा न हो तब विहार करने में कोई दोष नहीं है। वैराज्य में जाना, प्रथम समवसरण अर्थात् प्रथम वर्षाकाल में वस्त्र, पात्र आदि लेना, नित्यवास करना, वसति को शून्य कर जाना, अकल्पित अर्थात् अगीतार्थ शैक्ष द्वारा लाया गया अज्ञातोञ्छ का परिभोग करना-इन सब क्रियाओं में कोई दोष नहीं है। सभी पांच महाव्रतधारी मुनि सांभोगिक हैं। ८६८/१.सागारियपिंडे को दोसो,फासुए ठवण चेव पलियंके।
गिहिनिसेज्जाए को दोसो, उवसंतेसु गुणाहिओ॥ ८६८/२. गिहिमत्तेणुड्डाहो, निग्गंथीचिट्ठणादि को दोसो।
जस्स तु तधियं दोसो, होही तस्सण्णठाणेसु॥ ८६८/३. पडिसेधो मासकप्पे, तिरियादी उ बहुविधो दोसो।
सुत्तत्थपारिहाणी, विराधणा संजमातो य॥ ८६८/४. वेरज्जे चरंतस्स, को दोसो चत्तमेव देहं तु।
फासुयपढमोसरणे, को दोसो णितियपिंडे य॥ ८६८/५. सुण्णाए वसधीए,उवघातो किन्नु होति उवधिस्स।
पाणवधादि असंते, अधव असुण्णा वि ऊहम्मे॥
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