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पहला उद्देशक साधुओं को प्रतर्पित करता है, वर्णवाद बोलता है, उसके प्रायश्चित्त भोजी होता है वह देशतः पार्श्वस्थ है। में ह्रास भी किया जाता है।)
८५७. आइण्णमणाइण्णं, निसीधऽभिहडं च णो निसीहं च। ८५१. थोवं भिन्नमासादिगाउ, य राइंदियाइ जा पंच। साभावियं च नियतं, निकायण निमंतणा लहुगो॥
सेसेसु पदं हसती, पडितप्पिय एतरे सकलं॥ अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-आचीर्ण और अनाचीर्ण।
स्तोक अर्थात् भिन्नमास से प्रारंभ कर यावत् पांच रात- अनाचीर्ण के दो प्रकार हैं-निशीथ अभ्याहृत और नोनिशीथ दिन के प्रायश्चित्त से मुक्त हो जाता है। भिन्नमास से ऊपर के अभ्याहृत । स्वाभाविक के तीन प्रकार हैं-नियत, निकाचित तथा प्राप्त-प्रायश्चित्त में जो शेष है, वह साधुओं को प्रतर्पित करने पर निमंत्रित। ये सब लेने वाला देशतः पार्श्वस्थ है। तीनों का प्रायश्चित्त छूट जाता है। इतर अर्थात् जो साधुओं को प्रतर्पित नहीं करता है एक-एक लघुमास।' उसको परिपूर्ण प्रायश्चित्त दिया जाता है।
८५८. संविग्गजणो जड्डो, जह सुहिओ सारणाए चइओ उ। ८५२. दुविहो खलु पासत्थो, देसे सव्वे य होति नायव्वो। वच्चति संभरमाणो, तं चेव गणं पुणो एति॥
सव्वे तिन्नि विकप्पा, देसे सेज्जातरकुलादी॥ संविग्न जन हाथी की तरह होता है। संविग्न मुनि सुखपूर्वक
पार्श्वस्थ दो प्रकार के होते हैं-देशतः और सर्वतः। सर्वतः रह रहा था। वह स्मारणा को सहन न करता हुआ गण को पार्श्वस्थ के तीन विकल्प हैं और देशतः पार्श्वस्थ वह है जो छोड़कर पार्श्वस्थ विहार में चला गया। वहां वह संविग्न जीवन शय्यातरकुल की प्रतिसेवना करता है।
की स्मृति करता हुआ पुनः उसी गण में लौट आता है। ८५३. दंसण-नाण-चरित्ते-तवे य अत्ताहितो पवयणे य। ८५८./१. किह पुण एज्जाहि पुणो, तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि।।
___जध वणहत्थी तुं बंधणं चतितो। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा प्रवचन में जो हृतात्मा अर्थात्
गंतूण वणं एज्जा , सम्यग् योगवान नहीं है, जो ज्ञान आदि के पार्श्व-तट पर विहरण
पुणो वि सो चारिलोभेणं॥ करता है वह पार्श्वस्थ है। (यह सर्वतः पार्श्वस्थ का पहला विकल्प ८५८/२. एवं सारणवतितो, पासत्थादीसु गंतु सो एज्जा।
सुद्धो वि चारिलोभो, सारणमादीणवट्ठाए।। ८५४.दसण-नाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं न उज्जमति। वह मुनि पुनः गण में कैसे आता है? जैसे हाथी नगर के
एतेणउ पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ।। बंधन से मुक्त होकर वन में चला जाता है। फिर वह चारि के लोभ
जो दर्शन, ज्ञान, और चारित्र में स्वस्थ-अपने आप में में पुनः नगर में आ जाता है। इसी प्रकार वह मुनि स्मारणा को रहता है परंतु उनमें उद्यम नहीं करता, पुरुषार्थ नहीं करता, सहन न करके पार्श्वस्थ आदि में चला जाता है, परंतु चारिलोभ इसलिए वह पार्श्वस्थ होता है। यह भी अन्य पर्याय है (यह दूसरा (संविग्न जीवन की स्मृति और सत्कार आदि के लोभ) से पुनः विकल्प है।)
शुद्धरूप में लौट आता है। ८५५. पासो त्ति बंधणं ति य, एगट्ठ बंधहेतवो पासा। ८५८/३. आलोइयम्मि सेसं, पासत्थिय पासत्थो, अन्नो वि एस पज्जाओ।
जति चारित्तस्स अत्थि से किंचि।। पाश और बंधन एकार्थक हैं। जितने भी बंध के हेतु हैं वे तो दिज्जति तव-छेदो, पाश हैं जो पाश में स्थित हैं वह है पाशस्थ। यह भी उसका एक
अध नत्थि ततो से मूलं तु॥ पर्याय है।
जब वह आलोचना के लिए तत्पर होता है और यदि उसमें ८५६.सेज्जायरकुलनिस्सित,ठवणकुलपलोयणा अभिहडे य।। चारित्र किंचित् भी शेष हो तो उसे तप अथवा छेद का प्रायश्चित्त
पुव्विं पच्छासंथुत, णितियग्गपिंडभोइ य पासत्थो॥ दिया जाता है और यदि चारित्र है ही नहीं तो उसे मूल प्रायश्चित्त जो शय्यातरकुल, निश्रितकुल, स्थापनाकुल का आहार
दिया जाता है। लेता है, जो संखडी आदि का प्रलोकन करता रहता है, अभिहृत,
८५९. अत्थि य सि सावसेसं, जइ नत्थी मूलमत्थि तव-छेदा। पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात् संस्तुत, नित्यपिंड तथा अग्रपिंड का
थोवं जति आवण्णो, पडितप्पिय साहुणं सुद्धो।। १. आचीर्ण-तीन गृहांतर से लाया हुआ। अनाचीर्ण-तीन घरों के पर से प्रथम समागत श्रमण या अन्य को जो अग्रपिंड दिया जाता है वह है
लाया हुआ। निशीथ अभ्याहृत-साधु के अविदित अभ्याहृत, नोनिशीथ स्वाभाविक। जो भूतिकर्म आदि के कारण चातुर्मास पर्यंत प्रतिदिन अभ्याहृत-साधु के विदित आनीत । कारण अथवा निष्कारण-इनको निबद्धीकृतरूप में जो दिया जाता है वह है निकाचित। जो प्रतिदिन लेने वाला देशतः पार्श्वस्थ है।
निमंत्रण पुरस्सर दिया जाता है वह है निमंत्रित।
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