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________________ दूसरा उद्देशक १२४७. सेहो त्ति मं भाससि निच्चमेव, बहूण मज्झम्मि व किं कधेसि। आभासमाणण परोप्परं वा, दिव्वाणमुस्सग्ग तवस्सि कुज्जा। (पूछे जाने पर कि तुमने मेरे ऊपर मिथ्या आरोप क्यों लगाया) वह कहता है-जेष्ठार्य ! तुम प्रतिदिन मुझे शैक्ष (दुष्टशैक्ष) कहते थे। (इसलिए मिथ्या आरोप लगाया।) ज्येष्ठार्य उसको कहते हैं-तुमने बहुत लोगों के मध्य मेरे पर आरोप क्यों लगाया? यदि वे दोनों परस्पर बातचीत न करते हों तब यथार्थ ज्ञात न हो सकने के कारण तपस्वी क्षपक देवताराधना के लिए कायोत्सर्ग करे। (देवता के कथन के आधार पर सम्यग्वादी कौन और मिथ्यावादी कौन-यह जानले।) १२४८. किंचि तथा तह दिस्सति, चउभंगे, पंतदेवता भद्दा। अन्नीकरेति मूलं, इतरे सच्चाप्पतिण्णा तु॥ किसी भी प्रकार से यथार्थ ज्ञात न होने पर संघ को एकत्रित कर समस्या रखी जाती है। एक कहता है मैंने प्रतिसेवना नहीं की और दूसरा कहता है-हम दोनों ने प्रतिसेवना की है, तब गीतार्थ चतुर्भंगी इस प्रकार कहते हैं १. किंचित् तथाभाव तथाभाव से दीखता है। २. किंचित् तथाभाव अन्यथाभाव से दीखता है। ३. किंचित् अन्यथाभाव तथाभाव से दीखता है। ४. किंचित् अन्यथाभाव अन्यथाभाव से दीखता है। प्रांतदेवता अथवा भद्रदेवता अन्यथाभूत सद्वस्तु को अन्यथा कर देते हैं। व्यवहार-प्रायश्चित्तदान आदि सत्यप्रतिज्ञ होते हैं। इसलिए रत्नाधिक ने जो कहा-मैंने प्रतिसेवना नहीं की, वह प्रमाणतः शुद्ध है। वह प्रायश्चित्तभाक् नहीं होता। अवमरात्निक ने कहा-मैंने प्रतिसेवना की, उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १२४९. छोभगदिण्णो दाउं, व छोभगं सेविउं व तदकिच्चं। सच्चाओ व असच्चं, ओहावणसुत्तसंबंधो॥ मिथ्या आरोप आ जाने पर लज्जावश मुनि गण से अवधावन करना चाहता है। अभ्याख्यानदाता भी ज्ञात हो जाने पर लज्जित होकर अवधावन करता है। अथवा अकृत्य का सेवन कर, ज्ञात हो जाने के भय से अवधावन करता है। यह पूर्वसूत्र के साथ संबंधसूत्र है। अथवा पूर्व में संयम का प्रतिपादन है और प्रस्तुत में अवधावन के प्रसंग में असंयम का निरूपण है। यह दूसरे प्रकार से सूत्र-संबंध है। १२५०. सो पुण लिंगेण समं, ओहावेमो तु लिंगमधवा वि। किं पुण लिंगेण समं, ओधावि इमेहि कज्जेहिं।। कोई लिंग के साथ अवधावन करता है और कोई लिंग को छोड़कर अवधावन करता है। शिष्य पूछता है-लिंग के साथ क्यों १२५ अवधावन करता है? आचार्य कहते हैं-इन कार्यों (कारणों) से वह लिंग के साथ अवधावन करता है। ।। १२५१. जदि जीविहिति भज्जाइ, जइ वा वि धणं धरति जति व वोच्छंति। लिंगं मोच्छं संका, पविट्ठ तत्थेव उवहम्मे॥ यदि भार्या आदि जीवित हों, यदि मेरी संपत्ति अवस्थित हो, अथवा परिवार वाले कहेंगे तो मैं लिंग को छोड़ दूगा, अन्यथा नहीं। मैं उत्प्रव्रजन करूं या नहीं-इस आशंका में प्रवेश कर वह रात्री में वहीं रह जाए। १२५२. गच्छम्मि केइ पुरिसा, सीदंते विसयमोहियमतीया। __ ओधावंताण गणा, चउव्विहा तेसिमा सोही।। गच्छ में कुछ व्यक्ति इंद्रिय विषयों से मोहित मतिवाले होकर दुःख पाते हैं। जो गच्छ से अवधावन करते हैं उनके चार प्रकार की शोधि-प्रायश्चित्त आता है। १२५३. दव्वे खेत्ते काले, भावे सोही उ तत्थिमा दव्वे। राया जुवे अमच्चे, पुरोहित कुमार-कुलपुत्ते।। वे चार प्रकार ये हैं-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः । द्रव्यतः शोधि-राजा, युवराज, अमात्य, पुरोहित, कुमार और कुलपुत्र आदि विषयक। १२५४. एतेसिं रिद्धीओ, द8 लोभाउ सन्नियत्तंते। पणगादीया सोधी, बोधव्वा मासलहुगं ता॥ इनकी ऋद्धि को देखकर उस उत्प्रव्रजित मुनि का धर्म के लोभ से निवर्तित होने पर उसकी शोधि-प्रायश्चित्त लघुमास पर्यंत जानना चाहिए। (राजा को देखकर निवर्तन करने पर पांच रात-दिन के प्रायश्चित्त से शोधि, युवराज के विषय में दस रात-दिन, अमात्य के विषय में १५ रात-दिन, पुरोहित के विषय में बीस रात-दिन, कुमार के विषय में २५ रात-दिन और कुलपुत्र के विषय में लघुमास का प्रायश्चित्त है।) १२५५. चोदेती कुलपुत्ते, गुरुगतरं राइणो उ लहुगतरं। __ पच्छित्तं किं कारण, भणंति सुण चोदग! इमं तु॥ शिष्य पूछता है-भंते ! कुलपुत्र की ऋद्धि को देखकर निवर्तित होने वाले को गुरुकतर प्रायश्चित्त और राजा की ऋद्धि को देखकर निवर्तित होने वाले को लघुकतर प्रायश्चित्त कहा है, इसका कारण क्या है ? आचार्य कहते हैं-वत्स! इसका कारण सुनो। १२५६. दीसति धम्मस्स फलं, पच्चक्खं तत्थ उज्जम कुणिमो। इड्डीसु पतणुवीसुं, व सज्जते होति णाणत्तं॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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