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________________ १२४ सानुवाद व्यवहारभाष्य होना नहीं चाहते थे फिर भी गणप्रीतिकारक महान् स्थविर मुनि ने दोनों गण के साधुओं की इच्छापूर्ति करते हुए दोनों स्थविरों को अगृहीभूत अवस्था में ही उपस्थापित कर दिया। १२३७. पुव्वं वतेसु ठविते, रायणियत्तं अविसहंत कोई। ओमो भविस्सति इमो, इति छोभगसुत्तसंबंधो॥ दो में से एक व्यक्ति व्रतों में पहले उपस्थापित होता है और दूसरा बाद में। पूर्व उपस्थापित रत्नाधिक होता है। पश्चात् उपस्थापित कोई उसको सहन नहीं कर सकता। वह तब उसका छिद्रान्वेषण कर उस पर मिथ्या आरोप यह सोचकर लगाता है कि ऐसा करने से यह मेरे से छोटा हो जाएगा। यह सूत्रसंबंध है। १२३८. पत्तियपडिवक्खो वा, अचियत्तं तेण छोभगं देज्जा। पच्चयहेतुं च परे, सयं च पडिसेवितं भणति॥ प्रीतिक का प्रतिपक्ष है अप्रीतिक। अप्रीति के कारण किसी पर मिथ्या आरोप लगाया जाता है। दो साधु साथ विहरण करते । हुए एक ने प्रतिसेवना की। वह आलोचना करते समय आचार्य को विश्वास दिलाने के लिए कहता है-मैंने स्वयं इस साधु के साथ-साथ प्रतिसेवना की है। उस साधु पर मिथ्या आरोप लगाता है। १२३९. रायणियवाएणं, खलियमिलिय पेल्लणाय उदएण। देउलमेधुण्णम्मि य, अब्भक्खाणं कुडंगम्मि।। रत्नाधिकवाचक-मैं रत्नाधिक हूं इस गर्व से जो अवमरात्निक मुनि को 'तुम सामाचारी में स्खलित होते हो, सूत्रों के पदों को मिलाकर उच्चारित करते हो', इस प्रकार ताड़ित करता है, कषायोदय से उसको पीड़ित करता है तब वह अवमरात्निक मुनि उसको लघु करने की बात सोचकर उस पर मिथ्या आरोप लगाते हुए कहता है-इसने देवकुल अथवा कुडंग में (परिव्राजिका के साथ) मैथुन की प्रतिसेवना की है। १२४०. जेट्ठज्जेण अकज्जं, सज्जं अज्जाघरे कतं अज्ज। उवजीवितोऽत्थ भंते! मए वि संसट्ठकप्पो त्थ। वह आचार्य से कहता है-भंते! ज्येष्ठार्य ने आज अभी आर्यागृह (मंदिर) में अकार्य किया है। भंते ! मैंने भी उनके संसर्ग से संसृष्टकल्प-मैथुन की प्रतिसेवना की है। १२४१. अधवा उच्चारगतो, कुडंगमादी कडिल्लदेसम्मि। तत्थ य कतं अकज्जं, जेट्ठज्जेणं सह मए वि॥ अथवा मैं कुडंग आदि के गहन प्रदेश में उच्चार के लिए गया। वहां ज्येष्ठार्य के साथ मैंने भी अकार्य किया है। १२४२. तम्मागते वताई, दाहामो देंति वा तुरंतस्स। भूतत्थे पुण णाते, अलियनिमित्तं न मूलं तु॥ जब वह आचार्य को आलोचना देने के लिए निवेदन करता है तब आचार्य कहते हैं-ज्येष्ठार्य के आने पर हम व्रत-आलोचना देंगे। यदि वह आलोचना के लिए त्वरा करता है तो उसे आलोचना दे दी जाती है। भूतार्थ--यथार्थ ज्ञात होने पर, जिसने मिथ्या कहा था उसे मृषावादप्रत्ययिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, मूल प्रायचित्त नहीं। १२४३. चरिया-पुच्छण-पेसण, कावालि तवो य संघो जं भणति। चउभंगो हि निरिक्खी, देवय तहियं विही एसो॥ (द्वार गाथा) चरिका-परिवाजिका को पूछने के लिए वृषभों को भेजना। कापालिक वेशकरण। तप-कायोत्सर्ग से देवता को आहूत कर पूछना। अथवा संघ को एकत्रित करना। निरीक्षकों की चतुर्भंगी। यह यथार्थ को जानने की विधि है। (व्याख्या अगली गाथाओं में) १२४४. आलोइयम्मि निउणे, कजं से सीसते तयं सव्वं । पडिसिद्धम्मि य इतरो, भणाति बितियं पिते नत्थि ॥ ज्येष्ठार्य आचार्य के पास आया और यथार्थरूप से आलोचना कर लेने के पश्चात् आचार्य उसको तीन बार आलोचना कराने का कारण बताते हुए अवमरात्निक साधु के द्वारा कही गई सारी बात उसे कहते हैं। जब वह मैथुन प्रतिसेवना का प्रतिषेध करता है तब वह अवमरात्निक कहता है-ज्येष्ठार्य! अब तुम्हारे दूसरा व्रत भी नहीं है, क्योंकि तुम असत्य कह रहे हो। १२४५. दोण्हं पि अणुमतेणं,चरिया वसेभेहि पुच्छिय पमाणं। अन्नत्थ वसभ तुब्भे, जा कुणिमो देवउस्सग्गं ।। दोनों साधुओं की अनुमति से आचार्य वृषभों को चारिकापरिव्राजिका के पास पूछने के लिए भेजते हैं। वह जो कहे, वह प्रामाणिक होगा। वृषभ परिव्राजिका को पूछकर आचार्य के पास आकर सारी बात बता देते हैं। जब एक कहता है कि चारिका ने झूठ कहा है तब आचार्य दोनों मुनियों को कहते हैं-तुम दोनों वसति में जाकर रहो। हम आज रात्री में देवता की आराधना करने के लिए कायोत्सर्ग करेंगे। १२४६. अट्ठिगमादी वसभा,पुब्बिं पच्छा व गंतु निसिसुणणा। आवस्सग आउट्टण सन्मावे वा असब्भावे॥ वृषभ अस्थिक कापालिक आदि का वेश बनाकर पहले अथवा पश्चात् उस वसति में चले जाते हैं जहां दोनों मुनि रहने गये हैं। रात्री में वे वृषभ नींद का बहाना कर दोनों मुनियों का पारस्परिक उल्लाप सुनते हैं। आवश्यक करते समय भावप्रत्यावर्तन में सद्भाव अथवा असद्भाव जान लिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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