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________________ दूसरा उद्देशक १२३ श्रमणप्रतिरूपी हूं। १२२४. निज्जूढो मि नरीसर! खेत्ते वि जतीण अच्छिउं न लभे। अतियारस्स विसोधिं, पकरेमि पमायमूलस्स। नरेश्वर ! प्रमाद मूल के अतिचार का मैं विशोधन कर रहा हूं, इसलिए संघ से निष्कासित हूं। यतियों के क्षेत्र में साथ में मैं रह भी नहीं सकता। इसलिए श्रमणप्रतिरूप हूं। १२२५. कधणाऽऽउट्टण आगमणपुच्छणं दीवणा य कज्जस्स। वीसज्जियं ति य मया, हासुस्सलितो भणति राया। राजा द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का उत्तर देने पर राजा मुनि के प्रति आवर्तन-भक्तिभाव से भर जाता है। राजा ने तब मुनि से राजभवन में आने का कारण पूछा। मुनि ने अपने आगमन का प्रयोजन बताया। राजा प्रहृष्ट होकर बोला-'मैंने तुम्हें तुम्हारे प्रयोजन से मुक्त कर दिया है। (वह प्रयोजन क्या था?) १२२६. वादपरायणकुवितो, चेइयतहव्वसंजतीगहणे। पुव्वुत्ताण चउण्ह वि, कज्जाण हवेज्ज अण्णतरं।। १२२७. संघो न लभति कज्जं, लद्धं कज्जं महाणुभागेणं। तुज्झं तु विसज्जेमी, सो वि य संघो त्ति पूएति॥ वाद के पराजय से राजा कुपित हो गया हो अथवा चैत्य-जिनायतन उसके द्वारा अवष्टब्ध हो, अथवा चैत्यद्रव्य के ग्रहण में अथवा संयती द्वारा ग्रहण करने पर अथवा पूर्वोक्त- कल्पाध्ययन में कथित चारों कार्यों में से किसी भी कार्य की उत्कलना संघ प्राप्त नहीं कर सका किंतु इस प्रायश्चित्तवाहक महानुभाग ने प्राप्त कर लिया। राजा बोला-मुने! तुम्हारे प्रभाव से मैं पूर्वग्राह को विसर्जित करता हूं। मुनि कहता है-मैं तो किञ्चित्मात्र हूं। संघ महान् है। राजा संघ की पूजा करता है। १२२८. अब्भत्थितो व रण्णा, सयं वि संघो विसज्जयति तुट्ठो। आदी मज्झऽवसाणे, स यावि दोसो धुतो होति ॥ राजा संघ से प्रार्थना करता है अथवा संघ स्वयं संतुष्ट होकर मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर देता है। बिना गृहस्थीभूत किए उसे उपसंपदा दे दी जाती है। आदि, मध्य और अवसान में होने वाले सारे दोष कृपा से धुत हो जाते हैं-प्रकंपित हो जाते हैं। १२२९. सगणो य पदुट्ठो सो, आवण्णो तं च कारणं नत्थि। एतेहि कारणेहिं, अगिहिब्भूते उवट्ठवणा। स्वगण प्रद्विष्ट था, अतः किसी कारण से इसने पारांचित प्रायश्चित्त से गृहीभूत अवस्था प्राप्त की। यहां न प्रद्वेष है और न कोई कारण है। इसलिए अगृहस्थीभूत की उपस्थापना की जाती है। १२३०.ओहासणपडिसिद्धा, बहुसयणा देज्ज छोभगं वतिणी। तं चावण्ण अन्नत्थ, कुणह गिहीयं ति ते बेंति॥ १२३१. ते नाऊण पदुद्वे, मा होहिति तेसि गम्मतरओ त्ति। मिच्छिच्छा मा सफला,होहिति तो सो अगिहिभूतो।। एक साध्वी के प्रव्रज्या प्रतिपन्न बहुत स्वजन थे। एक बार उसने आचार्य से कुछ याचना की। आचार्य के प्रतिषेध करने पर उसने आचार्य पर झूठा आरोप लगाया। आचार्य तज्जनित प्रायश्चित्त का वहन अन्यत्र गण में करने गए। वे संयती के स्वजन कहने लगे-इनको गृहस्थीभूत करो। उस गण के आचार्य ने इन स्वजनों को प्रद्विष्ट जानकर, इनके द्वारा वह गम्य न हो, उनकी मिथ्या इच्छा सफल न हो यह सोचकर उनको अगृहीभूत अवस्था में ही उपसंपन्न कर लिया। १२३२. सोउ गिहिलिंगकरणं, अणुरागेणं भणंतऽगीतत्था। __ मा गिहियं कुणह गुरूं, अध कुणह इमं निसामेह। १२३३. विसामो अम्हे, एवं ओभावणा जइ गुरुणं । एतेहिं कारणेहिं, अगिहिब्भूते उवट्ठवणा॥ आचार्य को गृहलिंगी करने की बात सुनकर, अगीतार्थ मुनि अनुराग से कहते हैं-हमारे गुरु को गृहीक मत करो। यदि करोगे तो यह स्पष्ट सुन लो-यदि गुरु का ऐसा तिरस्कार हुआ तो हम सब यहां से उत्क्रमण कर देंगे। इन कारणों से उनकी अगृहीभूत अवस्था में ही उपस्थापना की जाती है। १२३४. अण्णोण्णेसु गणेसुं, वहति तेसि गुरवे अगीताणं। ते बेंति अण्णमण्णं, किह काहिह अम्ह थेर त्ति। १२३५. गिहिभूते त्ति य वुत्ते, अम्हे वि करेमु तुज्झ गिहिभूतं। अगिहि त्ति दोन्नि वि मए, भणंति थेरा इमं दो वी।। १२३६. न विसुज्झामो अम्हे,अगिहिभूतो य तधावऽणिच्छेसु। इच्छा सिं पूरिज्जति, गणपत्तियकारगेहिं तु।। दो गण हैं। दोनों के साधु अगीतार्थ हैं। दोनों गण के गुरु प्रायश्चित्तस्थान पात्र हैं। वे दोनों प्रायश्चित्त वहन करने के लिए एक-दूसरे के गण में चले गए। दोनों गण के साधु परस्पर कहने लगे-हमारे स्थविर (गुरु) को क्या करोगे? एक गण वाले यदि कहते हैं कि हम तुम्हारे गुरु को गृहीभूत करेंगे तो दूसरे गण वाले भी कहेंगे-हम भी तुम्हारे गुरु को गृहीभूत करेंगे। यह विवाद होने पर दोनों गण के साधु अगीतार्थ साधुओं को कहते हैं हम दोनों स्थविरों (गुरुओं) को अगृहीभूत ही उपस्थापित करेंगे। यह सुनकर दोनों स्थविर कहते हैं-अगृहीभूत होकर हमारी विशोधि नहीं होगी, इसलिए हमें गृहीभूत करो। वे अगृहीभूत अवस्था में उपस्थापित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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