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________________ १२२ प्रायश्चित्त प्राप्त किया है, वे आचार्य प्रायश्चित्त वहन के संपूर्ण काल तक उसका प्रतिदिन अवलोकन-दर्शन करते हैं, गवेषणा करते हैं। विशेष कारण- ग्लानत्व आदि होने पर आचार्य सर्वप्रयत्न से उसकी देखभाल करते हैं। १२१२. जो उ उवेहं कुन्जा आयरिओ केणई पमादेण। आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्ठा || आचार्य किसी प्रमादवश उसकी उपेक्षा करते हैं तो उन्हें पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह प्रायश्चित्त है चार गुरुमास । १२१३. आहरति मत्तपाणं, उव्वत्तणमादियं पि से कुणति । सयमेव गणाधिवती, अघ अगिलाणो सयं कुणति ॥ प्रायश्चित्तवाहक मुनि के लिए गणाधिपति आचार्य स्वयं भक्तपान लाते है, उसका उद्वर्तन आदि करते हैं। जब वह अग्लान - स्वस्थ हो जाता है तब वह सारे कार्य स्वयं करता है, आचार्य से नहीं करवाता। १२१४. उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्य वट्ठमाणिं । आसासइत्ताण तवो किलंतं, तमेव खेत्तं समुवेंति थेरा ॥ आचार्य अपने शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर, उनके प्रश्नों का समाधान कर, प्रायश्चित्तवाहक मुनि के पास आकर शरीर विषयक वर्तमान की जानकारी प्राप्त करते हैं। यदि प्रायश्चित्तवाहक तप से क्लांत हुआ है तो उसे आश्वस्त कर आचार्य अपने क्षेत्र स्थान पर आ जाते हैं। १२१५. गेलण्णेण व पुट्ठो, अभिणवमुक्को ततो व रोगातो । कालम्मि दुब्बले वा, कज्जे अण्णे व वाघातो ॥ आचार्य निम्नोक्त कारणों से प्रायश्चित्तवाहक के पास नहीं भी जा सकते आचार्य रोग से स्पृष्ट हो गए हों, रोग से अभीअभी मुक्त हुए हों, अथवा उस काल में शरीर दुर्बल हो अथवा अन्य कार्य के कारण व्याघात उत्पन्न हो गया हो । १२१६. पेसेति उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो । पुट्ठो व अपुट्ठो वा, स वावि दीवेति तं कज्जं ॥ स्वयं आचार्य न जा सकने की स्थिति में उपाध्याय अथवा वहां जाने योग्य अन्य गीतार्थ को वहां भेजे। प्रायश्चित्तवाहक के पूछने पर अथवा न पूछने पर आचार्य के अनागमन का कारण उसे बताए । १२१७. जाणंता माहप्पं, सयमेव भणति एत्थ तं जोग्गो । अत्यि मम एत्थ विसओ, अजाणते सो व ते बैति ।। यदि आचार्य का आगमन विशेष प्रयोजन से न हुआ हो और प्रायश्चित्तवाहक मुनि के पास जाने वाले उपाध्याय अथवा Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य गीतार्थ मुनि उसके माहात्म्य को जानते हों तो स्वयं उससे कहते हैं - इसे प्रयोजन के लिए तुम योग्य हो । यदि वे उसकी शक्ति को नहीं जानते तो वह स्वयं कहता है-यह मेरा विषय है। १२१८. अच्छउ महाणुभागो, जधासुहं गुणसयागरो संघो । गुरुगं पि इमं कज्जं मं पप्य भविस्सते लहुगं ॥ यह सैकड़ों गुणों का आकर तथा अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न संघ यथासुख स्थिर रहे। मेरे द्वारा यह गुरुक-बड़ा कार्य भी लघु हो जायेगा। मैं इस प्रयोजन को सहजतया साध लूंगा। १२१९. अभिधाणहेतुकुसलो, बहुसु नीराजितो विदुसमासु । गंतूण रायभवणे, भणाति तं रायदारिट्ठ ॥ १२२०. पडिहाररूवी भण रायरूविं तं इच्छते संजतरूवि बहुं । निवेदयित्ता य सह पत्थिवस्स, जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे ॥ वह अभिधानहेतु कुशल- शब्द और हेतु के प्रयोग में कुशल अनेक विद्वत्सभाओं में अर्चित और पूजित मुनि राजभवन में जाकर द्वारपाल से कहता है-हे प्रतिहाररूपिन् ! तुम राजरूपी (नृप) के पास जाकर कहो कि एक संयतरूपी (मुनि) आपको देखना चाहता है। द्वारपाल राजा के पास जाकर निवेदन करता है। फिर राजा की अनुमति से जहां राजा स्थित है वहां मुनि का प्रवेश कराता है। १२२१. तं पूयहत्ताण सुहासणत्थं, पुच्छिंसु रायाऽऽगतकोउहल्ले । पहे उराले असुते कदाई, स यावि आइक्खति पत्थिवस्स ॥ १२२२. जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं न तारिसो एसो । तुह राय दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी ॥ राजा मुनि की पूजा कर उन्हें शुभ आसन पर बिठाता है। राजा के मन में कुतूहल उत्पन्न हुआ और उसने उदार गंभीर तथा कभी भी न पूछे - सुने हुए अनेक प्रश्न मुनि को पूछे। मुि राजा के सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा हे राजन्! मैंने तुम्हारे द्वारपाल को प्रतिहाररूपी कहा। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे शक्र आदि के आरक्षक होते हैं वैसे यह द्वारपाल नहीं है इसलिए यह प्रतिहाररूपिन् है, द्वारपाल के सदृश है। मैंने आपको राजरूपिन् इसलिए कहा कि जैसे चक्रवर्ती होता है वैसे आप नहीं हैं। आप चक्रवर्ती के प्रतिरूप मात्र हैं। १२२३. समणाणं पहिरूवी, जं पुच्छसि राय तं कथमहं ति । निरतीयारा समणा, न तहाहं तेण पठिरूवी ॥ राजन् ! तुम मुझे पूछते हो कि मैं श्रमण प्रतिरूपी कैसे हूं ? सुनो, श्रमण निरतिचार होते हैं, मैं वैसा नहीं हूं, इसलिए www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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