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________________ (१४) २८४. २८५,२८६. २८७. २८८. २८९. २९०. २९१. २९२. २९३. २९४. २९५,२९६. २९७. २०८. २९९. ३००,३०१. ३०२. mmm ज्ञान आदि के लिए उपसंपद्यमान का नानात्व। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लिए उपसंपद्यमान का | ३२२. नानात्व। विभिन्न स्थितियों में शिष्य और आचार्य दोनों को प्रायश्चित्त। ३२३. उपसंपन्न की सारणा-वारणा ज्ञानार्थ उपसंपद्यमान की प्रायश्चित्त-विधि। | ३२४. दर्शनार्थ तथा चारित्रार्थ उपसंपद्यमान की ३२५. प्रायश्चित्त-विधि। गच्छवासी की प्राघूर्णक द्वारा वैयावृत्त्य विधि। ३२६. वैयावृत्त्यर की स्थापना संबंधी आचार्य के दोष। उपसंपद्यमान क्षपक की चर्चा । ३२७. तप से स्वाध्याय की वरिष्ठता। ३२८. गण में एक क्षपक के रहते दूसरे के ग्रहण का विवेक। ३२९,३३०. क्षपक की सेवा न करने से आचार्य को प्रायश्चित्त । प्रायश्चित्त-दान में आचार्य का विवेक। विशेष प्रयोजनवश छह माह पर्यन्त दोषी को प्रायश्चित्त न देने पर भी आचार्य निर्दोष । ३३२. अन्य कार्यों में व्याप्त आचार्य की यतना। आलोचना कैसे दी जाए? ३३३-३३५. अपराध-आलोचना का विमर्श। ३३६,३३७. अपराधालोचना करने वाले की मनःस्थिति जानकर उसे समझाना। ३३८. अपराधालोचना के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ३३९-३४१. अप्रशस्त द्रव्य के निकट आलोचना वर्जनीय। अमनोज्ञ धान्यराशि आदि के क्षेत्र में आलोचना | ३४२. वर्जनीय। अप्रशस्त काल में आलोचना वर्जनीय। ३४३. वर्जनीय नक्षत्र एवं उनमें होने वाले दोष। प्रशस्त क्षेत्र में आलोचना देने का विधान। ३४४,३४५. प्रशस्त काल में आलोचना का विधान। आलोचनाई की सामाचारी। ३४६.३४७.. आलोचनीय का विमर्श। आलोचना के लाभ। ३४८. आलोचनाह के दो प्रकार-आगमव्यवहारी, ३४९. श्रुतव्यवहारी। आगमव्यवहारी के छः प्रकार। | ३५०. आलोचना में आगमव्यवहारी की श्रेष्ठता। श्रुतव्यवहारी कौन ? उनकी आलोचना कराने की | ३५१. विधि। आलोचक की माया की परिज्ञान करने में अश्व | ३५२,३५३. का दृष्टान्त। आलोचक द्वारा तीन बार अपराध कथन का उद्देश्य। माया करने का प्रायश्चित्त भिन्न तथा अपराध का प्रायश्चित्त भिन्न। श्रुतज्ञानी द्वारा आलोचक की माया का ज्ञान करने का साधन। प्रतिकुंचक के लिए प्रायश्चित्त तथा तीन दृष्टांत। प्रायश्चित्त-दान में विषमता संबंधी शिष्य का प्रश्न तथा आचार्य का समाधान। आगम श्रुतव्यवहारी के प्रायश्चित्त दान का औचित्य। तीन दृष्टान्त-गर्दभ, कोष्ठागार और खल्वाट। प्रायश्चित्त-दान की विविधता का हेतु अर्हद्-वचन। प्रतिसेवना की विषमता में भी प्रतिसेवक के भेद से तुल्यशोधि में पांच वाणिक और पन्द्रह गधों का दृष्टान्त। प्रायश्चित्त भिन्न, शोधि समान। गीतार्थ और अगीतार्थ के विषम प्रायश्चित्त संबंधी शिष्य का प्रश्न तथा आचार्य का उत्तर। दंडलातिक दृष्टांत का विवरण और उसका उपनय। विषम प्रायश्चित्त संबंधी शिष्य का प्रश्न, आचार्य का उत्तर खल्वाट के दृष्टान्त का उपनय। प्रतिसेवक के परिणाम के आधार पर प्रायश्चित्त और उसका फल। दण्ड ग्रहण करने व न करने पर साध के लाभअलाभ। दण्ड ग्रहण करने व न करने पर गृहस्थ के लाभअलाभ। मूल विषयक शिष्य की शंका और आचार्य का विकल्प प्रदर्शन द्वारा समाधान। उद्घात, अनुद्घात आदि के विविध संयोगों के विकल्प। प्रायश्चित्त की वृद्धि-हानि विषयक चर्चा । प्रायश्चित्त में वृद्धि-हानि का आधार-सर्वज्ञवचन। बहुक के प्रकार तथा जघन्य और उत्कृष्ट बहुक के विकल्प। द्वारगाथा द्वारा स्थापना, संचयराशि आदि का कथन। स्थापनारोपण के तारतम्य का हेतु। ३०३. ३०४. '३०५. ३०६. ३०७. ३०८,३०५. ३१०.३१२. ३१३. ३१५. ३१६. ३१७. ३१८. ३१९. ३२०. ३२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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