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पहले धर्मकथा के द्वारा अनुकूल बनाकर, उसको संस्तारक दान से होने वाले फल के लोभ का वर्णन कर उसे कहता है-देखो, तुम संस्तारक की याचना करने वाले उस मुनि को तीन बार प्रतिषेध कर फिर मुझे वह संस्तारक दे देना । ३४३१. एवं विपरिणामितेण, लभति लहुगा य हाँति सगणिच्चे । अन्नगणिच्चे गुरुगा, मायनिमित्तं भवे गुरुगो ।। यदि स्वगण का साधु इस प्रकार विपरिणामित स्वामी से संस्तरक प्राप्त करता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और यदि अन्य गण का साधु ऐसा करता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि पूछने पर विपरिणमन का अपलाप करता है तो उसे मायाप्रत्ययिक एक गुरुमास का अधिक प्रायश्चित्त आता है।
३४३२. अह पुण जेणं दिट्ठो, अन्नो लदो तु तेण संधारो। छिन्नो तदुवरि भावो, ताधे जो लभति तस्सेव ॥ जिसने संस्तारक देखा उससे दूसरे को वह संस्तारक मिल गया। पूर्वदृष्टमुनि को उपरिभाव अर्थात् व्यवसाय छिन्न हो गया । अतः पश्चात् जिसको प्राप्त हुआ वह संस्तारक उसकी का आभाव्य है ।
३४३३. अहवा वि तिनि वारा, उमग्गितो न वि य तेण लदो उ।
भावे छिन्नमछिन्ने, अन्नो जो लमति तस्सेव ॥ अथवा जिसने देखा और स्वामी से उसकी तीन बार याचना करने पर भी तीनों बार उसे प्राप्त नहीं हुआ और यदि उस संस्तारक से उसका भाव व्यवच्छिन्न हुआ या नहीं हुआ, फिर भी जो दूसरा उसको प्राप्त करता है, उसी का वह आभाव्य है । ३४३४. एवं ता दिट्ठम्मी ओभासते वि होंति छच्चेव । सोउं अहभावेण व विप्परिणामे य धम्मकथा ॥ ३४३५. वोच्छिन्नम्मि व भावे, अन्नो वन्नस्स जस्स देज्जाहि । एते खलु छन्भेदा, ओभासण होंति बोधव्वा ॥ जिस प्रकार दृष्टद्वार के छह भेद हैं, उसी प्रकार अवभाषित द्वार के भी छह प्रकार ज्ञातव्य हैं- १. सुनकरके २. यथाभाव से ३. विपरिणाम ४. धर्मकथा ५. व्यवच्छिन्न तथा ६. अन्य उसका । ३४३६. ओभासिते अलद्धे, अव्वोच्छिन्ने य तस्स भावे तु ।
सोउं अण्णोभासति, लदाणीतो पुरिल्लस्स ॥ याचना करने पर संस्तारक प्राप्त नहीं हुआ तथा संस्तारक का भाव भी व्यवच्छिन्न नहीं हुआ, उस स्थिति में गुरु के समक्ष उस विषयक की जाने वाली उसकी आलोचना सुनकर दूसरा व्यक्ति याचना करता है और प्राप्त कर उसको ले आता है। आचार्य कहते हैं - वह संस्तारक पूर्व मुनि का आभाव्य है । ३४३७. सेसाणि जधादिट्ठे, अह भावादीणि जाव वोच्छिन्ने । दाराई जोएज्जा, छट्ठ विसेसं तु वोच्छामि ||
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सानुवाद व्यवहारभाष्य
शेष चारों द्वार यथाभाव से लेकर व्यवच्छिन्न तक जैसे दृष्ट द्वार में पूर्व भावित थे वैसे ही उनकी योजना करनी चाहिए। छट्ठे द्वार - अन्य अथवा अन्य का में जो विशेष है वह कहूंगा। ३४३८. अच्छिन्ने अन्नोनं, सो वा अन्नं तु जदि स देज्जाही।
कप्पति जो तु पणतो, तेण व अनेण व न कप्पे ॥ प्रथमदृष्ट मुनि का संस्तारक विषयक भाव अव्यवच्छिन्न होने पर यदि कोई दूसरा मुनि जाकर पूछे और अन्य मनुष्य अन्य संस्तारक यदि दे अथवा वही संस्तारक स्वामी अन्य संस्तारक दे तब वह उसको कल्पता है जो संस्तारक प्रणयित याचित था वह उस स्वामी के द्वारा अथवा अन्य मनुष्य द्वारा दिए जाने पर भी नहीं कल्पता ।
३४३९. लवद्दारे चेवं, जोए जहसंभवं तु
बाराई।
जत्तियमेत्त विसेसो, तं बोच्छामी समासेणं ॥ लब्धद्वार में भी पूर्ववत् श्रुत्वा आदि द्वारों की यथासंभव योजना करे। जितनामात्र विशेष है, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। ३४४०. ओभासितम्मि लब्दे, भणंति न तरामु एण्हि नेउं जे।
अच्छउ णेहाभो पुण, कल्ले वा घेच्छिहामो त्ति ॥ एक मुनि ने संस्तारक देखा, याचना की और प्राप्त कर लिया। उसने साथी मुनियों से उसे वसति में ले जाने के लिए कहा तब वे साथी मुनि बोले- अभी हम भिक्षा के लिए घूमते हुए उस संस्तारक को नहीं ले जा सकते। इसको यहीं रहने दें। पश्चात् आकर ले जाएंगे अथवा कल इसे ले जाएंगे। ३४४१. नवरय अन्नो आगत, तेण वि सो चेव पणइतो तत्थ ।
दिन्नो अन्नस्स ततो, विप्परिणामेति तह चेव ॥ अन्य मुनि वहां आया। उसने भी उसी संस्तारक की याचना की। संस्तारक स्वामी ने कहा- मैंने इसे दूसरे साधु को दे दिया है। तब वह मुनि उस संस्तारक स्वामी को पूर्ववत् विपरिणत करता है।
३४४२. अहमावालोयण धम्मकधण वोच्छिन्नमन्नदाराणि ।
णेयाई तह चेव उ जधेव ऊ छनुवारम्मि ॥ यथाभावद्वार, आलोचना अर्थात् श्रुत्वाद्वार, धर्मकथन -द्वार, व्यवच्छिन्नद्वार तथा अन्यद्वार-इन पांचों द्वारों का विवरण जैसे अवभाषितद्वार में कहा गया है वैसे ही जानना चाहिए। छठा विपरिणाम द्वार कहा जा चुका है।
३४४३. सणातिए वि तेच्चिय, दारा नवरं इमं तु नाणत्तं । आयरिएणाभिहितो, गेण्डउ संचारयं अज्जो ॥ ३४४४. सुद्धदसमीठिताणं, बेती घेच्छामि तद्दिणं चेव ।
नातगिहे पहिणत्तो, मए उ संथारओ भंते! ॥ संज्ञातिक द्वार में भी छह द्वार पूर्ववत् जानने चाहिए। उनमें नानात्व यह है आचार्य ने कहा-आर्य संस्तारक ग्रहण करो,
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