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________________ आठवां उद्देशक ३१३ संस्तारक लाओ। (मुनि गया। संज्ञातिकों-ज्ञातिगृहों में संस्तारक ३४५०. पुच्छाए नाणत्तं, केणुद्धकतं तु पुच्छियमसिद्धे। मिल गया।) अन्नासढमाणीतं, पि पुरिल्ले केइ साधारं।। शुक्ला दशमी के दिन आचार्य वहां स्थित थे। उनके पास यथाभावद्वार में पृच्छा विषयक नानात्व है। अन्य मुनि ने आकर बोला-भंते ! मैंने ज्ञातिगृह में संस्तारक प्रतिज्ञप्त-देखा है। फलक-संस्तारक को भींत के सहारे खड़ा किया हुआ देखा। जिस दिन आप सोना चाहेंगे उसी दिन मैं उसे ले आऊंगा। उसने पूछा-इसको खड़ा किसने किया है-गृहस्थ ने अथवा मुनि ३४४५. विपरिणामे तहच्चिय, अन्नो गंतूण तत्थ नायगिह। ने? गृहस्थ ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब असठभाव से उस आसन्नतरो गिण्हति, मित्तो अन्नो विमं वोत्तुं॥ संस्तारक की याचना कर वह उसे ले आया। फिर भी वह पूर्व ३४४६. अन्ने वि तस्स नियगा, देहिह अन्नं य तस्स मम दाउं। मुनि का आभाव्य होगा, उसका नहीं। कुछ मानते हैं कि वह दुल्लभलाभमणाउं, ठियम्मि दाणं हवति सुद्धं॥ साधारण अथवा दोनों का आभाव्य है। ३४४७. सण्णाइगिहे अन्नो, न गेण्हते तेण असमणुण्णातो। ३४५१. छन्ने उद्धोवकतो, संथारो जइ वि सो अधाभावो। सति विभवे असतीए,सो वि हुन वि तेण निव्विसति॥ तत्थ वि सामायारी, पुच्छिज्जति इतरधा लहुगो।। (पूर्व श्लोक गत मुनि के कथन को सुनकर) आसान्नतर यद्यपि संस्तारक यथाभाव से गृहस्थ द्वारा ऊर्ध्वकृत है अथवा मित्ररूप दूसरा मुनि उस ज्ञातिगृह में जाकर उस संस्तारक- फिर भी सामाचारी यह है कि गृहस्थ को पूछना चाहिए। न पूछने स्वामी को पूर्ववत् विपरणित करता है। वह कहता है-उस मुनि के पर प्रायश्चित्तस्वरूप एक लधुमास आता है। दूसरे भी ज्ञातिजन हैं। वे उसको संस्तारक दे देंगे। अथवा यह ३४५२. सेसाई तह चेव य, विप्परिणामादियाइ दाराई। संस्तारक मुझे दे दो और उसको दूसरा दे देना। जो अज्ञातोंछवृत्ति बुद्धीय विभासेज्जा, एत्तो वुच्छं पभुद्दारं।। से जीवन यापन करने वालों को दुर्लभ लाभ वाला दान दिया शेष विपरिणाम आदि द्वार पूर्ववत् ही हैं। बुद्धि से उनका जाता है वह शुद्ध होता है। (क्योंकि वह इहलोक-परलोक की। प्रतिपादन करना चाहिए। अब आगे प्रभुद्वार का वर्णन करूंगा। आशंसा से विप्रमुक्त होता है।) तथा स्वज्ञातिगृह में अन्य मुनि ३४५३. पभुदारे वी एवं, नवरं पुण तत्थ होति अहभावे। अर्थात् अज्ञाति मुनि संस्तारकस्वामी द्वारा असमनुज्ञात होकर एगेण पुत्त जाइय, बितिएण पिता तु तस्सेव।। संस्तारक का ग्रहण नहीं कर सकता। मैं सज्ञाति हूं, एक बार प्रभुद्वार में भी वे ही छह द्वार है। यथाभाव में नानात्व है। अनुज्ञात संस्तारक का ग्रहण कर सकता हूं। विभव होने पर एक मुनि ने यथाभाव से संस्तारकस्वामी के पुत्र से संस्तारक की अथवा न होने पर भी उस आत्मीय सज्ञाति के बिना संस्तारक याचना की और दूसरे मुनि ने उसी के पिता से संस्तारक की आदि का उपभोग नहीं कर सकता। इसलिए मुझे संस्तारक दो-इस याचना की। प्रकार संस्तारकस्वामी को विपरिणत कर वह संस्तारक ले आता ३४५४. जो पभुतरओ तेसिं, अधवा दोहिं पि जस्स दिन्नं तु। है। (परंतु वह संस्तारक पूर्व मुनि का होता है, जो लाया है उसका अपभुम्मि लहू आणा, एगतरपदोसतो जं च॥ नहीं होता। पिता-पुत्र में जो प्रभुतर है उसने जिसको संस्तारक दिया, ३४४८. सैसाणि य दाराणी, तह वि य बुद्धीय भासणीयाई। वह उसका होगा। अथवा पिता-पुत्र दोनों प्रभु हैं और दोनों ने उद्भद्दारे वि तधा, नवरं उद्धम्मि नाणत्तं मिलकर जिसको दिया है, वह उसका होगा। अप्रभु से ग्रहण शेष द्वारों का भी पूर्वोक्त प्रकार से ही अपनी बुद्धि से कथन करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा करना चाहिए। ऊर्ध्वद्वार में पूर्वोक्त प्रकार से छह भेद हैं उनमें जो पिता-पुत्र में से किसी एक के प्रद्विष्ट हो जाने पर उसका प्रायश्चित्त नानात्व है वह यह है। भी प्राप्त होता है। ३४४९. आणेऊण न तिण्णे, वासस्स य आगमं तु नाऊणं। ३४५५. अहवा दोन्नि वि पहुणो, ताधे साधारणं तु दोण्हं पि। मा उल्लेज्ज हु छण्णे, ठवेति मा वण्ण मग्गेज्जा॥ विप्पणामादीणि तु, सेसाणि तधेव भावेज्जा। एक साधु ने फलक-संस्तारक प्राप्त कर लिया किंतु वर्षा अथवा पिता और पुत्र दोनों प्रभु हैं और दोनों ने पृथक्आने वाली है यह जानकर उसे ला नहीं सका। उसने सोचा, यह पृथक् रूप से दो मुनियों को दिया है तो वह दोनों मुनियों का वर्षा से भीग न जाए तथा दूसरा कोई मुनि इसकी मार्गणा न करे, साधारण है, दोनों का है। विपरिणाम आदि शेष द्वार पूर्ववत् इसलिए उसे एक आच्छन्न स्थान में रख दिया। (दूसरा यदि उसे कथनीय हैं। ले आता है तो वह संस्तारक उसका आभाव्य नहीं होता, पूर्व ३४५६. एस विधी तू भणितो, जहियं संघाडएहि मग्गंति। मुनि का ही होता है।) संघाडेहऽलभंता, ताहे वंदेण मग्गंति।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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